चैती
होली के बीतते ही आता है चैत का महीना। बौराये आमों पर छके हुए भौंरों की गुंजार का महीना। खेत-खलिहान में जागने का महीना और जागती आँखों में सुनहरी फसलों के सपने सजाने का महीना। चैती की तान छेड़ने का महीना -
हिया जरत रहत दिन रैन, हो रामा, जरत रहत दिन रैन
अम्बुआ की डाली पे कोयल बोले तनिक न आवत चैन हो रामा, जरत रहत दिन रैन।
बँसवारी में मधुर सुर बाजे बिरही पपिहरा बोलन लागे
मधुर-मधुर मधु बैन हो रामा।
आस अधूरी प्यासी उमरिया छाये अँधेरा सूनी डगरिया
डरत जिया बेचैन हो रामा।
फ़िल्मी गीत होने के बावजूद इसमें लोकगीत की मिठास है। माटी की सुगंध है। शायद इसलिए कि इस गीत की रचना प्रक्रिया से जुड़े सभी लोग कहीं न कहीं बनारस-ग़ाज़ीपुर से जुड़े थे। उपन्यास के लेखक प्रेमचंद जी बनारस के पास लमही ग्राम के रहने वाले थे, जो अब हिन्दी के लेखक-पत्रकारों के लिए तीर्थ बन चुका है। फिल्म के निर्माता-निर्देशक त्रिलोक जेटली और गीतकार अंजान ख़ास बनारस के रहने वाले थे। और शायद कम लोग जानते हों कि इस फिल्म के संगीतकार पंडित रविशंकर का बचपन बनारस के पास ग़ाज़ीपुर में बीता था। ग़ाज़ीपुर ने फिल्मी दुनिया को एक और ज़बरदस्त पटकथा-संवाद-गीत लेखक दिया था - राही मासूम रज़ा। वही आधा गाँव उपन्यास और महाभारत टीवी सीरियल वाले - राही मासूम रज़ा। और अंजान यानी लालजी टंडन के बेटे समीर भी इन दिनों ख़ासे लोकप्रिय गीतकार माने जाते हैं।
तो बात हो रही थी गोदान फिल्म की इस चैती की, जिसे स्वर दिया था मुकेश जी ने और परदे पर अदा किया था राजकुमार जी ने। जब यह फिल्म बन रही थी तब लोगों को आशंका थी कि स्टाइलिश कपडे-जूते पहनने वाले राजकुमार भला गाँव के ग़रीब किसान होरी की भूमिका कैसे निभा पायेंगे। लेकिन राजकुमार ने जिस तरह प्रेमचंद जी के इस किरदार को परदे पर पेश किया, देखने वालों को एक पल के लिए भी याद नहीं आया कि वे होरी को नहीं राजकुमार को देख रहे हैं।
इस फिल्म में होरी के बेटे गोबर्धन बने थे महमूद। गोबर शहर में काम करता है और होली मनाने गाँव आता है। उसके पाँव जैसे घर की तरफ दौड़े चले जा रहे हैं। यहाँ भी एक बेहद खूबसूरत गीत था -
पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा कि हियरा में उठत हिलोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे सन्देसवा कि चल आज देसवा की ओर।
झुकि-झुकि बोलें कारे-कारे ये बदरवा कबसे पुकारे तोहे नैनों का कजरवा
उमड़-घुमड़ जब गरजे बदरिया रे ठुमुक-ठुमुक नाचे मोर।
सिमिट-सिमिट बोले लम्बी ये डगरिया, जल्दी-जल्दी चल राही अपनी नगरिया
रहिया तकत बिरहिनिया दुल्हनिया रे बाँधि के लगनिया की डोर।
यही नहीं गोदान की होली और सोहर भी खाँटी बनारसी रंग लिए हुए थीं।
बनारस में हमारे घर एक बड़े बुज़ुर्ग आते थे, जिनका जीवन पहले बड़े ही ऐशो-आराम में बीता था। शहर के बीच बीसियों दुकानों वाला कटरा, बहरी अलंग के लिये सारनाथ के पास अपना खुद का बहुत बड़ा बगइचा और सैर के लिए बग्घी-घोड़ों की सवारी। रईसों वाला एक शौक़ भी था - अच्छा संगीत सुनने का। मैं जब तक स्कूल में पहुँची, तब तक बिकने योग्य काफ़ी चीज़ें उस शौक़ की भेंट चढ़ चुकी थीं। लेकिन गीत रह गए थे - कुछ बड़ी मोती बाई के, कुछ रसूलन बाई के तो कुछ सिद्धेश्वरी जी के। जब कभी मौज में आते, हारमोनियम निकलवा कर हमें सिखाने लगते। आवाज़ बहुत धीमी, पर बड़ी मीठी थी उनकी। एक-एक खटका बड़े मनोयोग से सिखाते थे। उनसे सीखी थी ये चैती -
एहि ठैंया मोतिया हेराइ गइले रामा, कँहवा मैं ढूँढू।
सास से पुछ्ल्युं ननदिया से पुछ्ल्युं
सैंया से पूछत लजाय गइल्युं रामा, कँहवा मैं ढूँढू।
दिल्ली आने के बाद मैं होली तो पहले की तरह गाती रही - कभी अम्मा के लेडी श्रीराम कॉलेज में, कभी अपने कोणार्क अपार्टमेंट्स में, तो कभी मनोहर श्याम जोशी जी के यहाँ कुमाऊँनी होली मिलन में, लेकिन चैती-कजरी कहीं "हेराइ गइलीं"..... मैं उन्हें ढूँढती भी तो कहाँ ढूँढती? और अगर ढूँढ भी लेती तो किसे सुनाती? बहुत साल बाद बनारस से जुडी एक फिल्म में उस पुरानी चैती के कुछ अंश फिर सुनने को मिले। यू ट्यूब महाराज की कृपा से ढूँढा और बार-बार सुना। लागा चुनरी में दाग़ के लिये रेखा भारद्वाज ने इसे परदे के पीछे से और हेमा मालिनी ने परदे के ऊपर गाया है। लेकिन बनारसी माटी की खुशबू नहीं मिली। वो तो वहीँ मिली, जहाँ बनारस की माटी के साथ गंगाजल भी रचा-बसा था। जी हाँ, पद्म विभूषण, विदुषी गिरिजा देवी के पास -
चैत मास चुनरी रंगइबे हो रामा, पिया घर अइहैं।
पीत रंग लंहगा सबुज रंग चोलिया
लाल रंग चुनरी रंगइबै हो रामा, पिया घर अइहैं।
और अब बनारस की माटी और गंगाजल की सुगंध लिये मेरी अम्मा का एक गीत सुनिये जिसमें चैत की बयार में झूमती अमराई है और मन-मृदंग पर यादों की थाप है --
चैत की बयार बहे नाचे अमराई रे
मन मृदंग पर सुधि ने थाप सी लगाई रे।
प्राण के मंजीर बँधे साँसों की डोर में
मान-मनुहारों की ग्रंथियाँ हैं छोर में
धड़कनों की राधिका मुरली सुन आई रे।
हिया जरत रहत दिन रैन, हो रामा, जरत रहत दिन रैन
अम्बुआ की डाली पे कोयल बोले तनिक न आवत चैन हो रामा, जरत रहत दिन रैन।
बँसवारी में मधुर सुर बाजे बिरही पपिहरा बोलन लागे
मधुर-मधुर मधु बैन हो रामा।
आस अधूरी प्यासी उमरिया छाये अँधेरा सूनी डगरिया
डरत जिया बेचैन हो रामा।
फ़िल्मी गीत होने के बावजूद इसमें लोकगीत की मिठास है। माटी की सुगंध है। शायद इसलिए कि इस गीत की रचना प्रक्रिया से जुड़े सभी लोग कहीं न कहीं बनारस-ग़ाज़ीपुर से जुड़े थे। उपन्यास के लेखक प्रेमचंद जी बनारस के पास लमही ग्राम के रहने वाले थे, जो अब हिन्दी के लेखक-पत्रकारों के लिए तीर्थ बन चुका है। फिल्म के निर्माता-निर्देशक त्रिलोक जेटली और गीतकार अंजान ख़ास बनारस के रहने वाले थे। और शायद कम लोग जानते हों कि इस फिल्म के संगीतकार पंडित रविशंकर का बचपन बनारस के पास ग़ाज़ीपुर में बीता था। ग़ाज़ीपुर ने फिल्मी दुनिया को एक और ज़बरदस्त पटकथा-संवाद-गीत लेखक दिया था - राही मासूम रज़ा। वही आधा गाँव उपन्यास और महाभारत टीवी सीरियल वाले - राही मासूम रज़ा। और अंजान यानी लालजी टंडन के बेटे समीर भी इन दिनों ख़ासे लोकप्रिय गीतकार माने जाते हैं।
तो बात हो रही थी गोदान फिल्म की इस चैती की, जिसे स्वर दिया था मुकेश जी ने और परदे पर अदा किया था राजकुमार जी ने। जब यह फिल्म बन रही थी तब लोगों को आशंका थी कि स्टाइलिश कपडे-जूते पहनने वाले राजकुमार भला गाँव के ग़रीब किसान होरी की भूमिका कैसे निभा पायेंगे। लेकिन राजकुमार ने जिस तरह प्रेमचंद जी के इस किरदार को परदे पर पेश किया, देखने वालों को एक पल के लिए भी याद नहीं आया कि वे होरी को नहीं राजकुमार को देख रहे हैं।
इस फिल्म में होरी के बेटे गोबर्धन बने थे महमूद। गोबर शहर में काम करता है और होली मनाने गाँव आता है। उसके पाँव जैसे घर की तरफ दौड़े चले जा रहे हैं। यहाँ भी एक बेहद खूबसूरत गीत था -
पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा कि हियरा में उठत हिलोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे सन्देसवा कि चल आज देसवा की ओर।
झुकि-झुकि बोलें कारे-कारे ये बदरवा कबसे पुकारे तोहे नैनों का कजरवा
उमड़-घुमड़ जब गरजे बदरिया रे ठुमुक-ठुमुक नाचे मोर।
सिमिट-सिमिट बोले लम्बी ये डगरिया, जल्दी-जल्दी चल राही अपनी नगरिया
रहिया तकत बिरहिनिया दुल्हनिया रे बाँधि के लगनिया की डोर।
यही नहीं गोदान की होली और सोहर भी खाँटी बनारसी रंग लिए हुए थीं।
बनारस में हमारे घर एक बड़े बुज़ुर्ग आते थे, जिनका जीवन पहले बड़े ही ऐशो-आराम में बीता था। शहर के बीच बीसियों दुकानों वाला कटरा, बहरी अलंग के लिये सारनाथ के पास अपना खुद का बहुत बड़ा बगइचा और सैर के लिए बग्घी-घोड़ों की सवारी। रईसों वाला एक शौक़ भी था - अच्छा संगीत सुनने का। मैं जब तक स्कूल में पहुँची, तब तक बिकने योग्य काफ़ी चीज़ें उस शौक़ की भेंट चढ़ चुकी थीं। लेकिन गीत रह गए थे - कुछ बड़ी मोती बाई के, कुछ रसूलन बाई के तो कुछ सिद्धेश्वरी जी के। जब कभी मौज में आते, हारमोनियम निकलवा कर हमें सिखाने लगते। आवाज़ बहुत धीमी, पर बड़ी मीठी थी उनकी। एक-एक खटका बड़े मनोयोग से सिखाते थे। उनसे सीखी थी ये चैती -
एहि ठैंया मोतिया हेराइ गइले रामा, कँहवा मैं ढूँढू।
सास से पुछ्ल्युं ननदिया से पुछ्ल्युं
सैंया से पूछत लजाय गइल्युं रामा, कँहवा मैं ढूँढू।
दिल्ली आने के बाद मैं होली तो पहले की तरह गाती रही - कभी अम्मा के लेडी श्रीराम कॉलेज में, कभी अपने कोणार्क अपार्टमेंट्स में, तो कभी मनोहर श्याम जोशी जी के यहाँ कुमाऊँनी होली मिलन में, लेकिन चैती-कजरी कहीं "हेराइ गइलीं"..... मैं उन्हें ढूँढती भी तो कहाँ ढूँढती? और अगर ढूँढ भी लेती तो किसे सुनाती? बहुत साल बाद बनारस से जुडी एक फिल्म में उस पुरानी चैती के कुछ अंश फिर सुनने को मिले। यू ट्यूब महाराज की कृपा से ढूँढा और बार-बार सुना। लागा चुनरी में दाग़ के लिये रेखा भारद्वाज ने इसे परदे के पीछे से और हेमा मालिनी ने परदे के ऊपर गाया है। लेकिन बनारसी माटी की खुशबू नहीं मिली। वो तो वहीँ मिली, जहाँ बनारस की माटी के साथ गंगाजल भी रचा-बसा था। जी हाँ, पद्म विभूषण, विदुषी गिरिजा देवी के पास -
चैत मास चुनरी रंगइबे हो रामा, पिया घर अइहैं।
पीत रंग लंहगा सबुज रंग चोलिया
लाल रंग चुनरी रंगइबै हो रामा, पिया घर अइहैं।
चैत की बयार बहे नाचे अमराई रे
मन मृदंग पर सुधि ने थाप सी लगाई रे।
प्राण के मंजीर बँधे साँसों की डोर में
मान-मनुहारों की ग्रंथियाँ हैं छोर में
धड़कनों की राधिका मुरली सुन आई रे।
पलकों से छान कोई सोम सुधा पी आये
अलसा कर गीतों की बगिया में सो जाये
जैसे दबी बाँहों पर रेख उभर आई रे।
कल्पना की अल्पना चाहों के आँगन में
चित के चौबारे पर नयन दीप साधन में
आस की अँगुरियों ने बाती उकसाई रे।
रंग भरी सहालग में भावना की लगन चढ़ी
पन्ने की थाली में धरती ले पियरी खड़ी
न्हाइ-धोई दुलहिन सी याद निखर आई रे।
क्या बात है जिज्जी! बहुत शानदार पोस्ट। आनंद आ गया। वैसे विदुषी गिरिजा बाई की गाई हुई चैती -चैत मास बोले रे कोयलिया हो रामा मोरे अंगनवा" भी सुनने लायक है, अभी आपको लिंक देते हैं।
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