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On Veena's 60th birthday

पचास साल पहले मेरे नानाजी रिटायर होकर बनारस आये थे. शहर हमारे लिए नया नहीं था लेकिन मोहल्ला नया था. मैं और मेरा भाई घर के लॉन में खेल रहे थे. तभी मेन गेट के पास से मेरी एक हम-उम्र लड़की ने हेलो कहा. मैं उसे नहीं पहचान सकी क्योंकि मेरे लिए सभी चेहरे बिलकुल नये थे लेकिन उसने मुझे पहचान लिया ..... मैं उसी के स्कूल में और उसी की क्लास में थी. छठीं कक्षा से बी ए तक हम साथ पढ़े, साथ खेले. जन्म-दिन की पार्टी हो या शादी... हमें एक साथ ही बुलाया जाता था. हमारा अन्योन्याश्रित  सम्बन्ध जो था. बी ए की पढ़ाई के बीच ही वीणा की शादी तय हो गयी. शादी में हमारी बहुत सारी सहेलियां आयी थीं. हमने खूब गाने गाये, मस्ती की, जीजाजी के साथ चुहलबाजी की.... फेरे का समय देर रात का था. एक-एक करके सारी सहेलियां चली गयीं. मेरे घर से भी बुलावा आ गया था. वीणा को मंडप तक पहुँचाने के बाद मैं भी वहाँ से खिसकने की सोच रही थी. तभी वीणा ने अपने बेहद ठन्डे हाथ से मेरा हाथ पकड़कर कहा- तुम तो रुकोगी न? मैं रुक गयी. मुझे रुकना ही पड़ा. मैं पढ़ाई में लगी रही. बीच-बीच में जब कभी वीणा बनारस आती... हम मिलते. ये जो Aviance की सीनियर

फ्रॉम मी टु यू ---- सत्या सरन

समीक्षा : डॉ शुभ्रा शर्मा समाचार क्षणिक होते हैं. एक दिन की खबर चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, अगले दिन बासी हो जाती है. आज का समाचार-पत्र कल की रद्दी बन जाता है. लेकिन उसी समाचार-पत्र में कुछ सामग्री ऐसी भी होती है, जो शाश्वत होती है और सदा प्रासंगिक रहती है क्योंकि उसमें जीवन के अनुभवों का निचोड़ होता है. इसीलिए पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों की दैनिक, साप्ताहिक अथवा पाक्षिक टिप्पणियां कभी बासी नहीं होतीं. उदाहरण के लिए जनसत्ता में बरसों-बरस छपने वाला प्रभाष जोशी का कॉलम 'कागद कोरे' अगर शाश्वत न होता तो क्या पाँच-पाँच जिल्दों में प्रकाशित होता? या फिर अंग्रेजी पत्रिका फेमिना में छपने वाला सत्या सरन का कॉलम 'मी टु यू' अगर आज भी प्रासंगिक न होता तो पुस्तक के रूप में कैसे प्रकाशित होता? हाल में प्रकाशित यह पुस्तक आकार में छोटी है, मात्र 212 पृष्ठ हैं, इसलिए लेटे, बैठे या यात्रा करते हुए आराम से पढ़ी जा सकती है. हर लेख स्वतन्त्र है और लगभग दो से ढाई पृष्ठ का है. कुछ शब्द चित्र हैं, कुछ अमिट छाप छोड़ने वाली घटनाएं हैं और कुछ सोचने के लिए मजबूर करने वाली टिप्पणियां हैं.