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Showing posts from 2012

क़ौमी शायर चकबस्त

क़ौमी शायर चकबस्त --- डॉ शुभ्रा शर्मा भारत के इतिहास में १८५७ का साल ख़ास अहमियत रखता है. कवि के शब्दों में कहें तो - "गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत हमने पहचानी थी" और तभी आज़ादी के लिए जद्दो-जहद शुरू की थी. हम इसे 'आज़ादी की पहली लड़ाई' के नाम से जानते हैं, हालाँकि बहुत दिनों तक अँगरेज़ हुक्मरान इसे 'सिपाही विद्रोह' कहते रहे. उर्दू शायरों में दो ही इस घटना के चश्मदीद गवाह थे, एक - बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र और दूसरे - मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब. ज़फ़र तो अपना हाल ख़ुद बयान कर गये हैं - कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए, दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कूए यार में. अंग्रेजों ने उन्हें सिपाही विद्रोह का नायक मानते हुए देश-निकाला दे दिया और उन्हें ख़ाके-वतन भी नसीब न हुई. रह गये ग़ालिब, सो अंग्रेजों से वज़ीफ़ा पाने को दर-बदर ठोकरें खाते रहे. ज़ौक़, मोमिन और अमीर मीनाई ये दिन देखने को ज़िन्दा नहीं थे. निज़ाम बदला, हिंदुस्तान की तक़दीर बदली, फिर भला शायरी इससे अछूती कैसे रह जाती? लिहाज़ा, ग़ज़ल के इन उस्ताद शायरों के बाद जो शायर आये, उन्होंने ख़ुमो-साग़र और गुलो-बुलबुल के बजाय क़ौमो-वतन

Salil Chowdhury- एक विलक्षण प्रतिभा

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सलिल चौधरी, एक नाम, एक व्यक्तित्व, एक अदभुत संगीतकार, एक विलक्षण प्रतिभा।  हिन्दी फ़िल्म संगीत के स्वर्णिम दौर के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक - सलिल चौधरी। शांत चेहरे और बैचेन नज़रों के पीछे रचनात्मकता का गहरा समुद्र छुपाये, सलिल दा ने न जाने कितनी कालजयी रचनाओं को जन्म दिया।  उन्होंने लगभग ७५ हिन्दी फिल्मों और २६ मलयालम फिल्मों के अलावा बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कन्नड, गुजराती, मराठी, असमिया और ओडिया फिल्मों में भी संगीत दिया और क्या खूब दिया ! सलिल चौधरी का जन्म १९ नवम्बर १९२२ को बंगाल के दक्षिण चौबीस परगना जिले के एक गाँव में हुआ था। पिता ज्ञानेन्द्र चौधरी आसाम के चाय बागान  में डॉक्टर थे और पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत के शौक़ीन।  बचपन से सलिल घर के भीतर उनके रिकॉर्ड और बाहर गूँज रहे बागान मज़दूरों के गीत सुन सुनकर बड़े हुए।  कहते हैं कि आठ साल की उम्र में ही वे उम्दा बाँसुरी बजाने और गाने लगे थे। बड़े भाई के ऑर्केस्ट्रा की बदौलत कई और वाद्य बजाना सीख गए, जिनमें इसराज, वॉयलिन और पियानो प्रमुख थे।  उनके पिता चाय बागानों में काम करने वाले गरीब मजदूरों-कुलियों को साथ लेक

क्या है ग़ज़ल?

उर्दू शायरी की सबसे अधिक लोकप्रिय विधा है ग़ज़ल. यह बात दीगर है कि हिंदी पट्टी वाले उसे मूंगफली और तिल - गुड़ की गजक की तरह "गजल" बोल डालते हैं, लेकिन इससे ग़ज़ल के प्रति उनका लगाव तो कम नहीं हो जाता. जब तक ग़ज़लें बेगम अख्तर या फ़रीदा ख़ानम की आवाज़ में सुनने को मिलती थीं, कोई- कोई बिरले ही उसके मुरीद होते थे. लेकिन भला हो जगजीत और चित्रा सिंह का जिन्होंने ग़ज़ल को चुनिन्दा कद्रदानों की महफ़िल से निकाला और गली -मोहल्ले की खुली हवा में गुँजा दिया. फिर तो अकेले जगजीत ही क्यों, मनहर और पंकज उधास, चन्दन दास, तलत अज़ीज़, पीनाज़ मसानी और अहमद और मोहम्मद हुसैन के स्वर भी अक्सर सुनाई देने लगे. सरहद पार से मेहदी हसन और ग़ुलाम अली साहबान भी अक्सर इधर तशरीफ़ लाने और हमें अपनी ग़ज़लों से लुभाने लगे. ग़ज़ल से हमारा परिचय तो खूब बढ़ा लेकिन सच पूछिए तो हम अब तक उसके सही स्वरूप से परिचित नहीं हैं. क्या है ग़ज़ल? शाब्दिक अर्थ पर जायें, तो ग़ज़ल हसीनों से या उनके बारे में बातचीत करने का तरीक़ा है. यह शब्द अरबी के गज़ाला और अंग्रेज़ी के gazelle से उर्दू में आया है. इसका अर्थ है खूबसूरत आँखों वाली हिरनी. ज़

On Veena's 60th birthday

पचास साल पहले मेरे नानाजी रिटायर होकर बनारस आये थे. शहर हमारे लिए नया नहीं था लेकिन मोहल्ला नया था. मैं और मेरा भाई घर के लॉन में खेल रहे थे. तभी मेन गेट के पास से मेरी एक हम-उम्र लड़की ने हेलो कहा. मैं उसे नहीं पहचान सकी क्योंकि मेरे लिए सभी चेहरे बिलकुल नये थे लेकिन उसने मुझे पहचान लिया ..... मैं उसी के स्कूल में और उसी की क्लास में थी. छठीं कक्षा से बी ए तक हम साथ पढ़े, साथ खेले. जन्म-दिन की पार्टी हो या शादी... हमें एक साथ ही बुलाया जाता था. हमारा अन्योन्याश्रित  सम्बन्ध जो था. बी ए की पढ़ाई के बीच ही वीणा की शादी तय हो गयी. शादी में हमारी बहुत सारी सहेलियां आयी थीं. हमने खूब गाने गाये, मस्ती की, जीजाजी के साथ चुहलबाजी की.... फेरे का समय देर रात का था. एक-एक करके सारी सहेलियां चली गयीं. मेरे घर से भी बुलावा आ गया था. वीणा को मंडप तक पहुँचाने के बाद मैं भी वहाँ से खिसकने की सोच रही थी. तभी वीणा ने अपने बेहद ठन्डे हाथ से मेरा हाथ पकड़कर कहा- तुम तो रुकोगी न? मैं रुक गयी. मुझे रुकना ही पड़ा. मैं पढ़ाई में लगी रही. बीच-बीच में जब कभी वीणा बनारस आती... हम मिलते. ये जो Aviance की सीनियर

फ्रॉम मी टु यू ---- सत्या सरन

समीक्षा : डॉ शुभ्रा शर्मा समाचार क्षणिक होते हैं. एक दिन की खबर चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, अगले दिन बासी हो जाती है. आज का समाचार-पत्र कल की रद्दी बन जाता है. लेकिन उसी समाचार-पत्र में कुछ सामग्री ऐसी भी होती है, जो शाश्वत होती है और सदा प्रासंगिक रहती है क्योंकि उसमें जीवन के अनुभवों का निचोड़ होता है. इसीलिए पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों की दैनिक, साप्ताहिक अथवा पाक्षिक टिप्पणियां कभी बासी नहीं होतीं. उदाहरण के लिए जनसत्ता में बरसों-बरस छपने वाला प्रभाष जोशी का कॉलम 'कागद कोरे' अगर शाश्वत न होता तो क्या पाँच-पाँच जिल्दों में प्रकाशित होता? या फिर अंग्रेजी पत्रिका फेमिना में छपने वाला सत्या सरन का कॉलम 'मी टु यू' अगर आज भी प्रासंगिक न होता तो पुस्तक के रूप में कैसे प्रकाशित होता? हाल में प्रकाशित यह पुस्तक आकार में छोटी है, मात्र 212 पृष्ठ हैं, इसलिए लेटे, बैठे या यात्रा करते हुए आराम से पढ़ी जा सकती है. हर लेख स्वतन्त्र है और लगभग दो से ढाई पृष्ठ का है. कुछ शब्द चित्र हैं, कुछ अमिट छाप छोड़ने वाली घटनाएं हैं और कुछ सोचने के लिए मजबूर करने वाली टिप्पणियां हैं.