Holi





इस बार होली पर दोस्तों की महफ़िल में मैंने एक सवाल रखा -

मेरे लिए होली का मतलब है गुलाल, गीत और गुझिया। आपके लिये ?

बहुत सारे जवाब आये। सबने अपने-अपने तरीके से होली मनाने का ब्यौरा दिया। मगर देखा कि उनमें से ज़्यादातर चित्र बचपन के थे और गीत सभी के अभिन्न अंग थे।

अपने बचपन से शुरू करूँ तो होली से जुड़ा जो पहला गीत स्मृति में उभरता है, वह था -

जमुना तट श्याम खेलैं होरी, जमुना तट।
एक ओर खेलें कुँवर कन्हैया, एक ओर राधा गोरी रे, जमुना तट।


होली की एक टोली के चले जाने पर रंग-गुलाल से भीगे लोग घास पर पसरकर गुझिया-ठंडाई का आनंद लेते और हारमोनियम-तबले पर चलते रहते गीत -

फगवा ब्रिज देखन को चलो री।
फगवे में मिलेंगे कुँवर कान्ह, बाट चलत बोले कगवा।

और - आज बिरज में होरी रे रसिया,
होरी नहीं बरजोरी रे रसिया।

या फिर - कान्हा बरसाने में आय जइयो बुलाय गयीं राधा प्यारी
बुलाय गयीं राधा प्यारी रे समझाय गयीं राधा प्यारी।

लेकिन यह तो धुलड्डी के दिन की बात है। होली की तैयारी तो उससे बहुत दिन पहले से शुरू हो जाती थी। महिलाओं के बीच अनुपम "बहन-चारा" लागू हो जाता था। जो गुझिया की विशेषज्ञ होतीं, वे यू-ट्यूब के बिना ही उत्तम गुझिया बनाने का प्रशिक्षण देने लगतीं । सेव-गाठिया-पापड़ी की एक्सपर्ट विशेष प्रकार का बेसन या तेल मँगाने की सलाह देती। और, ठंडाई में सौंफ या काली मिर्च कितनी रखी जाये, यह बहस संयुक्त राष्ट्र की बहसों से भी ज़्यादा धमाकेदार हो जाती।

दूध वाले को हिदायत दी जाती कि रोज़ थोड़ा गोबर लाकर देगा। उस गोबर के छोटे-छोटे कंडे या उपले पाथे जाते। सूख जाने पर उनके बीच में छेदकर, मूँज की रस्सी में पिरोकर छोटी-बड़ी मालायें बनायी जातीं। आँगन के बीचोंबीच रेत का चौका पूरकर इन मालाओं से एक मिनी पहाड़ बनाया जाता। होलिका-दहन के समय चौराहे से कुछ अंगारे लाकर होली जलायी जाती। हम बच्चे यथाशक्ति गला फाड़कर चिल्लाते - "होलिका माता जर गयीं, बच्चन का आसीस दे गयीं।" गेहूं और चने की बालियों को होलिका में भूनते हुए परिक्रमा करते और लोटे से गुड़ घुले पानी का प्रसाद पाते। यहीं पूजा करते हुए पहली बार गुलाल का टीका लगाने और गुलाल उड़ाने की इजाज़त मिलती। तब लगता कि अब होली आयी।

बनारस आने से पहले नानाजी गोरखपुर में पोस्टेड थे। वहाँ आँगन के एक कोने में बर्तन माँजने का शेड था और पानी जमा करने के लिए सीमेंट की एक पक्की टंकी थी। इतनी बड़ी कि चार-पाँच बच्चे आराम से छपर-छपर कर सकते थे। नहीं कर पाते थे क्योंकि नानी और उनके दरबारी शरारती बच्चों की रग-रग से वाक़िफ़ थे। लेकिन होली के दिन हमें उस टंकी में कूदने-नहाने की खुली छूट थी। होली से कुछ दिन पहले उसकी काई साफ़ की जाती और दो दिन पहले से टेसू के फूल पानी में डाल दिए जाते। 

होली की टोलियाँ आतीं तब एकाध बाल्टी गरम पानी भी डाल दिया जाता। पहले हम आने वालों के साथ शराफत से पिचकारियाँ भरकर रंग खेलते लेकिन जल्दी ही याद आता कि टंकी बस आज के दिन ही हमारी है। बस छपाक-छैंया शुरू हो जाती। बारह बजे के बाद कान पकड़कर ही बाहर निकाले जाते। फिर नहलाने-धुलाने का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू होता। हालांकि टेसू का रंग और लाल-पीला गुलाल छुड़ाने में कोई ख़ास मेहनत नहीं पड़ती थी लेकिन रस्म-अदायगी के तौर पर डाँट बराबर पड़ती रहती।

शाम को फिर गीत-संगीत की महफ़िल गुलज़ार होती। ब्रिज में कान्हा, बरसाने में राधा और अवध में रघुबीरा की होली के संगीतमय विवरण के साथ कभी-कभी औघड़ बाबा भोलेनाथ की होली का भी बयान होता -

भोला काहे ना ताकेला अँखियाँ खोलके, सुन्दर मुख से बोलके ना।
दिव्य होलियों की इस महफ़िल में कभी कोई भूले से दिलीप कुमार- मीना कुमारी की --

तन रंग लो जी आज मन रंग लो, तन रंग लो

या फिर सुनील दत्त और चंचल की - होली आई रे कन्हाई रंग छलके, सुना दे ज़रा बाँसुरी - सुना बैठता तो बड़े-बूढ़ों को पसंद नहीं आता। इसके बाद फ़िल्मी गाने सुनाने वाला अगर ख़ुद ही "वृंदावन धाम अपार भजे जा राधे-राधे" पर लौट आता, तब तो ठीक वरना फिर उसे चाय-मिठाई लाने के बहाने महफ़िल से उठा दिया जाता। जो लोग गा नहीं सकते थे, वे कवित्त-सवैयों से लैस होकर आते।

फाग की भीर अबीरन की गुपालहि लै गयी भीतर गोरी
नैन नचाय कही मुसकाय लला फिर आइयो खेलन होरी।

भई, झूठ क्यों कहें हमें तो वो फिल्मी होली गाने वाले अंकल-आंटी भी अच्छे लगते थे। और वो दीदियाँ भी जो न जाने कहाँ से बड़ी मज़ेदार होलियाँ सीख आती थीं, जैसे -

होली में बाबा देवर लागे, होली में।
और -- फागुन मस्त महिनवा हो सजना छोड़ , नौकरिया घर बइठ।

फिर जब हम सीनियर स्कूल में पहुँचे और राजेश खन्ना को "लाइक" करने लगे, तब हमने पहली बार बग़ावत का झंडा बुलंद किया। बात यह थी कि जब राजेश खन्ना ने कह दिया कि -

आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली -- खेलेंगे हम होली
चाहे भीगे तेरी चुनरिया चाहे भीगे रे चोली -- खेलेंगे हम होली।

तो हमने भी उनके इस ऐलान-ए-जंग को होली की हर बैठक तक पहुँचाना, अपना परम धर्म मान लिया। क्या करें तब तक बाबू मोशाय अमिताभ बच्चन ने अपना रंग नहीं बरसाया था न!

रंग बरसे भीजे चुनर वाली, रंग बरसे।

उनका रंग बरसते ही सारे पिछले रंग फीके पड़ गये। हालाँकि हम अपनी ज़िद्द में नवरंग के नटखट को तब भी गाली देते रहे।

अरे जारे हट नटखट, न छू रे मेरा घूँघट, पलट के दूँगी आज तुझे गाली रे
मुझे समझो न तुम भोली-भाली रे।
आया होली का त्यौहार, पड़े रंग की बौछार, तू है नार नखरेदार मतवाली रे
आज मीठी लगे है तेरी गाली रे।

तब से अब तक बहुत सारी होलियाँ बीत चुकी हैं। हमें जैसे कपडे आठ साल की उम्र में पहनने की अनुमति नहीं थी, उन्हें पहनकर आज की अट्ठाइस साला युवती गा रही होती है --

बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी तो सीधी-सादी लड़की शराबी हो गयी।

लेकिन होली तो फिर भी होली है। उमंग, उछाह और उम्मीदों का त्यौहार। यह बात दीगर है कि अब मेरे गालों के बजाय पैरों पर गुलाल लगाने वालों की संख्या बढ़ गयी है लेकिन तो भी न तो मेरा गाने का उत्साह मंद हुआ है, न गुझिया खाने का, और न गुलाल लगवाने का।

बोल जोगीरा सरररर!

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