साँझ

साँझ
---डॉ शकुन्तला शर्मा

साँझ ऐसी मुरझायी सी ढर आये रे
जैसे गेंदा की बगिया ठिठर जाये रे।
बादल के छज्जे पे लहँगे की लहरन
पेड़ों की गोट जड़ी जोड़-जोड़ कतरन
अधर में लटकती सी पकड़ क्षितिज की धरन
धरती पर दलदल है कहाँ धरे थके चरन
भूखे खेतों का मुखड़ा उभर आये तो दबी कोहरे सी पीड़ा पसर जाये रे।

साँझ ऐसी .......
सागर की सीमा पे ललछौंही गहरन
दुखियारी आँखों में काजल की धुँधलन
मेघों की हलचल में किरणों की उलझन
मेले में जैसे भटक जाये दुलहन
घिरते अंधियारे में ऐसी घबराये रे, बंद कमरे में ज्यों पाँखी डर जाये रे।

साँझ ऐसी .........
अनचाहे बालक से गाँव के घरौंदे
नदिया में पाँव कहीं डाँव-डाँव डोलते
पपड़ी भरे होठों सा छपरी मुख खोलते
दिया बरे लायेगी मैया कुछ खोजके
मैले नभ से सितारे छिटक आये रे, जैसे आँचल से मकई बिथर जाये रे।

साँझ ऐसी .........



संध्या सुन्दरी 
----निराला

दिवसावसान का समय-
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,
धीरे, धीरे, धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक-
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता,
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह सी अम्बर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं-


एक तारा 
---सुमित्रानंदन पंत
नीरव सन्ध्या में प्रशान्त
डूबा है सारा ग्राम-प्रान्त।
पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल बन का मर्मर,
ज्यों वीणा के तारों में स्वर।
खग-कूजन भी हो रहा लीन, निर्जन गोपथ अब धूलि-हीन,
धूसर भुजंग-सा जिह्म, क्षीण।
झींगुर के स्वर का प्रखर तीर, केवल प्रशान्ति को रहा चीर,
सन्ध्या-प्रशान्ति को कर गभीर।
इस महाशान्ति का उर उदार, चिर आकांक्षा की तीक्ष्ण-धार
ज्यों बेध रही हो आर-पार।
अब हुआ सान्ध्य-स्वर्णाभ लीन,
सब वर्ण-वस्तु से विश्व हीन।
गंगा के चल-जल में निर्मल, कुम्हला किरणों का रक्तोपल
है मूँद चुका अपने मृदु-दल।
लहरों पर स्वर्ण-रेख सुन्दर, पड़ गई नील, ज्यों अधरों पर
अरुणाई प्रखर-शिशिर से डर।
तरु-शिखरों से वह स्वर्ण-विहग, उड़ गया, खोल निज पंख सुभग,
किस गुहा-नीड़ में रे किस मग!
मृदु-मृदु स्वप्नों से भर अंचल, नव नील-नील, कोमल-कोमल,
छाया तरु-वन में तम श्यामल।
पश्चिम-नभ में हूँ रहा देख
उज्ज्वल, अमन्द नक्षत्र एक!
अकलुष, अनिन्द्य नक्षत्र एक ज्यों मूर्तिमान ज्योतित-विवेक,
उर में हो दीपित अमर टेक।
किस स्वर्णाकांक्षा का प्रदीप वह लिए हुए? किसके समीप?
मुक्तालोकित ज्यों रजत-सीप!
क्या उसकी आत्मा का चिर-धन स्थिर, अपलक-नयनों का चिन्तन?
क्या खोज रहा वह अपनापन?
दुर्लभ रे दुर्लभ अपनापन, लगता यह निखिल विश्व निर्जन,
वह निष्फल-इच्छा से निर्धन!


William Wordsworth
It is a beauteous evening, calm and free;
The holy time is quiet as a nun
Breathless with adoration; the broad sun
Is sinking down in its tranquility;
The gentleness of heaven is on the sea.

Lew Sarett
God is at the anvil, beating out the sun
Where the molten metal spills
At his forge among the hills
He has hammered out the glory of a day that's done.

Anon
Lord of the far horizons
Give us the eyes to see
Over the verge of the sundown
The glory that is to be.

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