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क़ौमी शायर चकबस्त

क़ौमी शायर चकबस्त --- डॉ शुभ्रा शर्मा भारत के इतिहास में १८५७ का साल ख़ास अहमियत रखता है. कवि के शब्दों में कहें तो - "गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत हमने पहचानी थी" और तभी आज़ादी के लिए जद्दो-जहद शुरू की थी. हम इसे 'आज़ादी की पहली लड़ाई' के नाम से जानते हैं, हालाँकि बहुत दिनों तक अँगरेज़ हुक्मरान इसे 'सिपाही विद्रोह' कहते रहे. उर्दू शायरों में दो ही इस घटना के चश्मदीद गवाह थे, एक - बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र और दूसरे - मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब. ज़फ़र तो अपना हाल ख़ुद बयान कर गये हैं - कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए, दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कूए यार में. अंग्रेजों ने उन्हें सिपाही विद्रोह का नायक मानते हुए देश-निकाला दे दिया और उन्हें ख़ाके-वतन भी नसीब न हुई. रह गये ग़ालिब, सो अंग्रेजों से वज़ीफ़ा पाने को दर-बदर ठोकरें खाते रहे. ज़ौक़, मोमिन और अमीर मीनाई ये दिन देखने को ज़िन्दा नहीं थे. निज़ाम बदला, हिंदुस्तान की तक़दीर बदली, फिर भला शायरी इससे अछूती कैसे रह जाती? लिहाज़ा, ग़ज़ल के इन उस्ताद शायरों के बाद जो शायर आये, उन्होंने ख़ुमो-साग़र और गुलो-बुलबुल के बजाय क़ौमो-वतन