भगवती जागरण
दिल्ली में ब्याह-बारात, धरना-मोर्चा और क्रिकेट मैच की तरह देवी दुर्गा का रतजगा भी कुछ अतिरिक्त शान-शौकत, टीम-टाम और दिखावा लिए होता है। पहली बात तो यही है कि उसे रतजगा न कहकर माता की चौकी या भगवती जागरण कहा जाता है। दूसरे, आधे शहर में उसकी घोषणा करते हुए जो बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग लगाए जाते हैं, उनमें शेर पर सवार होकर दैत्यों का संहार करने निकली माता तो कहीं कोने-अतरे में फिट कर दी जाती हैं। होर्डिंग पर सजे होते हैं उनके नाम की चुनरी माथे पर बाँधे बड़े-बड़े गायक, वादक और स्थानीय विधायक जी के चेहरे।
उनसे कुछ दूरी पर ऊपर से नीचे जाते गोल-गोल बुद्बुदों में निगम पार्षद और उनके भाई-भतीजों के चित्र होते हैं। आप पढ़ते जाते हैं कि कैसे उस परिवार के ये सारे सदस्य कभी न कभी, किसी न किसी, महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित रह चुके हैं। पूर्व विधायक, पूर्व पार्षद, आदि से गुज़रते हुए अगर आप सदस्य, मोहल्ला रक्षक समिति तक पहुँच जायें, तो भी आश्चर्य न कीजियेगा। आख़िर मोहल्ले की सफ़ाई और सुरक्षा का ध्यानं रखना भी तो सराहनीय कार्य है, कि नहीं?
जब चौकी सज जाती है या माँ का दरबार लग जाता है, तब घरों में बंद लोगों को उकसा कर या लुभा कर पंडाल तक बुलाने का पुण्य कार्य शुरू होता है।
बीच में कोई अधसुरा नवोदित गायक बताता है कि -
माता जिनको याद करे वो किस्मत वाले होते हैं।
इसलिए चलो, घरों से निकलो क्योंकि तुम्हारे लिए बुलावा आया है, माता ने बुलाया है।
बालक बड़े मनोयोग से आप तक बुलावे की खबर पहुँचाता है। जानता है कि अगर लोग कम हुए और चढ़ावा कम आया तो बड़े और नामी गायकों का तो कुछ नुकसान नहीं होगा, वही बेचारा मारा जायेगा।
गाते-गाते जब इस चिंता में उसका गला रुँध जाता है और सुर थोड़ा भटक जाता है तब बाजे वालों की बन आती है। सिंथेसाइज़र और नाल वाला डाइरेक्ट एक दूसरे की आँखों में देखते हैं। उनके बीच एक अबोला समझौता होता है, जिसकी वे सिर हिलाकर पुष्टि भी कर देते हैं। सहसा दोनों वाद्यों से निकलता ध्वनि प्रदूषण, मर्यादा और हाई कोर्ट दोनों की निर्धारित सीमायें पार कर आपको दहलाने लगता है।
छोटे बच्चे रो पड़ते हैं तो उनकी मातायें "डर गया है", "डर रही है" कहती हुई भाग खड़ी होती हैं। लेकिन मोहल्ले की धुरी और भजन संध्या के आयोजकों में से एक उनके सास-ससुर "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे" डटे रहने को मजबूर होते हैं। कोई-कोई विरले ऐसे भी होते हैं कि इस अत्याचार को हँसते-हँसते झेल जाते हैं लेकिन इसमें उनकी भक्ति का नहीं,श्रवण शक्ति का योगदान अधिक होता है।
वाद्य यंत्र जब अपनी चरम सीमा तक पहुँचने के बाद दम लेने को रुकते हैं, तब मंडली के प्रमुख माइक संभाल लेते हैं। माइक पर उनकी पकड़ से साफ़ पता लग जाता है कि अब वह काफी देर ढीली नहीं होगी। वे पहले तो अब तक घर में बैठे लोगों को ललकारते हैं। फिर अपना और मंडली के अन्य सदस्यों का परिचय देते हैं। साथ में हवाई अड्डे की उद्घोषणा प्रणाली की तरह यह भी बताते जाते हैं कि माननीय मुख्य अतिथि महोदय अभी कहाँ तक पहुँचे हैं और उनका ई एस टी यानी एस्टिमेटेड टाइम ऑफ़ अराइवल क्या है।
फिर वे दो-चार जयकारे बुलवा कर एक थोड़ा शांत सा भजन शुरू करते हैं ताकि सामने बैठे अंकल-आंटियों को सौ-पचास के नोट चढ़ाकर मत्था टेकने की प्रथा याद आ जाये। अंकल-आंटी भी सोचते हैं - शुभस्य शीघ्रम - अभी दे दिया तो लोगों को याद रहेगा कि हमने सौ का नोट चढ़ाया है, वरना भीड़ हो जाने के बाद तो लोग दस का नोट फेंक कर चल देते हैं।
हारमोनियम पर नोट बढ़ने के साथ-साथ मंडली प्रमुख का कंठ-माधुर्य भी बढ़ता जाता है लेकिन तभी मुख्य अतिथि का आगमन होता है। अब मुख्य अतिथि हैं, अकेले तो आयेंगे नहीं। सदल-बल पधारते हैं। आयोजक दौड़-दौड़ कर सबके लिए कुर्सियों की व्यवस्था करते हैं। इसके बाद कुछ देर मुख्य अतिथि का औपचारिक परिचय दिया जाता है, कुछ देर वे नकली दिलचस्पी से लोगों की समस्यायें सुनते हैं और कुछ देर माँ के सामने भक्ति-भाव का अभिनय करते हैं। अगर स्थानीय स्तर के नेता हुए तो कुछ देर पंडाल की शोभा बढ़ाते हैं और अगर राज्य स्तर के हुए तो दीप प्रज्ज्वलित करते ही पीठ दिखाकर चले जाते हैं।
मेरे लिए ऐसे आयोजनों का असली खेल इसके बाद ही शुरू होता है। इनमें से एक खेल है - धुन पकड़ कर गीत पहचानने का और दूसरा खेल है - व्यक्ति के हाव-भाव से उसके दान की राशि भाँपने का। अगर साथ में कुछ अपने मन-मिज़ाज के और भी लोग हों तो इन दोनों खेलों में बहुत मज़ा आता है।
अभी पिछले साल तक मेरी भांजी मेरे साथ रहती थी और इस तरह की खुराफातों में मेरा साथ दिया करती थी। कभी-कभी तो हम पंडाल तक जाये बिना ही भगवती जागरण का आनंद लूट लेते थे।
लेकिन उस दिन पंडाल वालों ने हमें लूट लिया।
काफी देर तक कुछ परिचित और कुछ अपरिचित सा लगता प्री-ल्यूड बजता रहा।
हम दोनों कभी एक, तो कभी दूसरा गाना समझते रहे।
तभी आवाज़ गूँजी - कुक कुक कुक कुक कुक ..............
पर्वत के ऊपर क्या है - पर्वत के ऊपर
मंदर के अंदर क्या है - मंदर के अंदर
हो मंदर में अम्बा मेरी, अम्बा जगदम्बा मेरी
जाऊँ कहाँ मैं तुझे छोड़ के ------ जय माँ।
मुझे पूरा यकीन है कि शेरों वाली, पहाड़ों वाली, और सच्चियाँ जोताँ वाली माँ कभी इस अनिर्वचनीय गीत को भूल नहीं पायी होंगी। याद आते ही सिहर उठती होंगी।
उनसे कुछ दूरी पर ऊपर से नीचे जाते गोल-गोल बुद्बुदों में निगम पार्षद और उनके भाई-भतीजों के चित्र होते हैं। आप पढ़ते जाते हैं कि कैसे उस परिवार के ये सारे सदस्य कभी न कभी, किसी न किसी, महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित रह चुके हैं। पूर्व विधायक, पूर्व पार्षद, आदि से गुज़रते हुए अगर आप सदस्य, मोहल्ला रक्षक समिति तक पहुँच जायें, तो भी आश्चर्य न कीजियेगा। आख़िर मोहल्ले की सफ़ाई और सुरक्षा का ध्यानं रखना भी तो सराहनीय कार्य है, कि नहीं?
जब चौकी सज जाती है या माँ का दरबार लग जाता है, तब घरों में बंद लोगों को उकसा कर या लुभा कर पंडाल तक बुलाने का पुण्य कार्य शुरू होता है।
बीच में कोई अधसुरा नवोदित गायक बताता है कि -
माता जिनको याद करे वो किस्मत वाले होते हैं।
इसलिए चलो, घरों से निकलो क्योंकि तुम्हारे लिए बुलावा आया है, माता ने बुलाया है।
बालक बड़े मनोयोग से आप तक बुलावे की खबर पहुँचाता है। जानता है कि अगर लोग कम हुए और चढ़ावा कम आया तो बड़े और नामी गायकों का तो कुछ नुकसान नहीं होगा, वही बेचारा मारा जायेगा।
गाते-गाते जब इस चिंता में उसका गला रुँध जाता है और सुर थोड़ा भटक जाता है तब बाजे वालों की बन आती है। सिंथेसाइज़र और नाल वाला डाइरेक्ट एक दूसरे की आँखों में देखते हैं। उनके बीच एक अबोला समझौता होता है, जिसकी वे सिर हिलाकर पुष्टि भी कर देते हैं। सहसा दोनों वाद्यों से निकलता ध्वनि प्रदूषण, मर्यादा और हाई कोर्ट दोनों की निर्धारित सीमायें पार कर आपको दहलाने लगता है।
छोटे बच्चे रो पड़ते हैं तो उनकी मातायें "डर गया है", "डर रही है" कहती हुई भाग खड़ी होती हैं। लेकिन मोहल्ले की धुरी और भजन संध्या के आयोजकों में से एक उनके सास-ससुर "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे" डटे रहने को मजबूर होते हैं। कोई-कोई विरले ऐसे भी होते हैं कि इस अत्याचार को हँसते-हँसते झेल जाते हैं लेकिन इसमें उनकी भक्ति का नहीं,श्रवण शक्ति का योगदान अधिक होता है।
वाद्य यंत्र जब अपनी चरम सीमा तक पहुँचने के बाद दम लेने को रुकते हैं, तब मंडली के प्रमुख माइक संभाल लेते हैं। माइक पर उनकी पकड़ से साफ़ पता लग जाता है कि अब वह काफी देर ढीली नहीं होगी। वे पहले तो अब तक घर में बैठे लोगों को ललकारते हैं। फिर अपना और मंडली के अन्य सदस्यों का परिचय देते हैं। साथ में हवाई अड्डे की उद्घोषणा प्रणाली की तरह यह भी बताते जाते हैं कि माननीय मुख्य अतिथि महोदय अभी कहाँ तक पहुँचे हैं और उनका ई एस टी यानी एस्टिमेटेड टाइम ऑफ़ अराइवल क्या है।
फिर वे दो-चार जयकारे बुलवा कर एक थोड़ा शांत सा भजन शुरू करते हैं ताकि सामने बैठे अंकल-आंटियों को सौ-पचास के नोट चढ़ाकर मत्था टेकने की प्रथा याद आ जाये। अंकल-आंटी भी सोचते हैं - शुभस्य शीघ्रम - अभी दे दिया तो लोगों को याद रहेगा कि हमने सौ का नोट चढ़ाया है, वरना भीड़ हो जाने के बाद तो लोग दस का नोट फेंक कर चल देते हैं।
हारमोनियम पर नोट बढ़ने के साथ-साथ मंडली प्रमुख का कंठ-माधुर्य भी बढ़ता जाता है लेकिन तभी मुख्य अतिथि का आगमन होता है। अब मुख्य अतिथि हैं, अकेले तो आयेंगे नहीं। सदल-बल पधारते हैं। आयोजक दौड़-दौड़ कर सबके लिए कुर्सियों की व्यवस्था करते हैं। इसके बाद कुछ देर मुख्य अतिथि का औपचारिक परिचय दिया जाता है, कुछ देर वे नकली दिलचस्पी से लोगों की समस्यायें सुनते हैं और कुछ देर माँ के सामने भक्ति-भाव का अभिनय करते हैं। अगर स्थानीय स्तर के नेता हुए तो कुछ देर पंडाल की शोभा बढ़ाते हैं और अगर राज्य स्तर के हुए तो दीप प्रज्ज्वलित करते ही पीठ दिखाकर चले जाते हैं।
मेरे लिए ऐसे आयोजनों का असली खेल इसके बाद ही शुरू होता है। इनमें से एक खेल है - धुन पकड़ कर गीत पहचानने का और दूसरा खेल है - व्यक्ति के हाव-भाव से उसके दान की राशि भाँपने का। अगर साथ में कुछ अपने मन-मिज़ाज के और भी लोग हों तो इन दोनों खेलों में बहुत मज़ा आता है।
अभी पिछले साल तक मेरी भांजी मेरे साथ रहती थी और इस तरह की खुराफातों में मेरा साथ दिया करती थी। कभी-कभी तो हम पंडाल तक जाये बिना ही भगवती जागरण का आनंद लूट लेते थे।
लेकिन उस दिन पंडाल वालों ने हमें लूट लिया।
काफी देर तक कुछ परिचित और कुछ अपरिचित सा लगता प्री-ल्यूड बजता रहा।
हम दोनों कभी एक, तो कभी दूसरा गाना समझते रहे।
तभी आवाज़ गूँजी - कुक कुक कुक कुक कुक ..............
पर्वत के ऊपर क्या है - पर्वत के ऊपर
मंदर के अंदर क्या है - मंदर के अंदर
हो मंदर में अम्बा मेरी, अम्बा जगदम्बा मेरी
जाऊँ कहाँ मैं तुझे छोड़ के ------ जय माँ।
मुझे पूरा यकीन है कि शेरों वाली, पहाड़ों वाली, और सच्चियाँ जोताँ वाली माँ कभी इस अनिर्वचनीय गीत को भूल नहीं पायी होंगी। याद आते ही सिहर उठती होंगी।
:)Amazing..
ReplyDeleteThanx. We did have fun together!
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DeleteHe prabho. Kya expose kiya hai bhakt maafia ko
ReplyDeleteAapko kya maloom kya kya jhelna padta hai.Aap to aisi jagah jate hi nahi.
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ReplyDeleteअफसोस है कि इस ततरह के आयोजनों का कोई भी विरोध नहीं करता। रोहिणी में रहता हूँ। पंजाबी-बहुल क्षेत्र है। उनको अम्बा माँ से कुछ अधिक ही लगाव है। 8 बजे सोने और 2.50 सुबह उठने वाले इस गुनहगार कि नींद लगभग रोज़ ही हराम होती रहती है। पुलिस भी हमें ही समझा जाती है, "अरे साहिब! धार्मिक मामला है। आप भी शरीक हुआ करें ना? स्वर्ग नहीं जाना है क्या?"
ReplyDeleteहम उनको कहते हैं, "भैया! पहले इस नर्क से तो निजात दिलाओ। फिर सोचेंगे स्वर्ग कि।"
आप लोग तो पत्रकार-चित्रकार : सब कुछ हो। कुछ करो न जिससे हम जैसे असहायों (बुजुर्ग, बीमार, छात्र-छात्राओं आदि)को कुछ राहत मिले।
Hahaha.... aaj subah se to raam ke naam ka torture chal raha hai... halaki jagaran karne mein koi burai nahi... lekin volume kam karne se shayad inhe lagta hai ki maata tak avaaz nahi pohochti...
ReplyDeleteWoh suniye... shera wali mata bera paar laga do...
माता की भक्ति नहीं,ईवेंट मैनेजर की शक्ति।
ReplyDeleteSarita Lakhotia says : Bhagwati Jagran padha.... sochti hoon ki kya Aadami khud ko hi nahi chal raha ?? Pooja ke naam par show business aur loot hai....
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