लो डाल डाल फूले पलाश





-- शुभ्रा शर्मा

सौभाग्य था मेरा कि बचपन में जिस स्कूल में पढ़ी, वहाँ बड़ा "शांति निकेतनी" वातावरण था। चार-चार कक्षाओं के बीच खुला आँगन और उनमें तरह तरह के पेड़-पौधे। इस तरह हमारा बचपन प्रकृति के साथ बीता। आम, इमली, जामुन, अमरुद, और नीम ही नहीं हम टेसू, कदम्ब, मौलसिरी और अशोक के भी फूलने-फलने का समय जानते थे।


कुंद की झाड़ी 


म्यूज़िक क्लास के सामने कुंद की ऊँँची झाड़ियाँ थीं। सुबह जल्दी पहुँचकर गिरे हुए फूल बीनने की होड़ रहती हमारे बीच। उन फूलों से हम बिना सुई-डोरे के मालायें गूँथते और अपनी चोटियाँ सजाते थे। जिस लड़की के बालों में सबसे घना गजरा नज़र आता, उससे सब पूछतीं - क्या आठ बजे ही स्कूल आ गयी थी? इसी तरह अलग-अलग मौसम में माधवी, मालती और मौलसिरी के फूल हमारे श्रृंगार बनते।

करौंदा 
जुलाई में स्कूल खुलता तब पूरी दीवार के साथ लगी करौंदे की झाड़ियाँ फल-फूल रही होतीं। लाल-लाल करौंदे देख मुँह में पानी आये बिना नहीं रहता। माली और दाइयों की आँख बचाकर करौंदों से जेब भरकर लाने वाली लड़की हीरोइन बन जाती। तब तक कदम्ब फूलने लगते। न जाने क्यों मुझे बचपन से कदम्ब के फूल बड़े प्यारे लगते हैं। शायद इसलिये भी कि घर में नानी राधा-कृष्ण की पूजा करती थीं और सुमधुर कंठ से जो गीत गाती रहती थीं उनमे अकसर कदम्ब का ज़िक्र होता था।

मार्च में एक तरफ पढ़ाई का ज़ोर होता तो दूसरी तरफ़ टेसू और सेमल के पेड़ फूलों से लद जाते। सेमल के डोडे चटक कर फूटते तब उनमें से रेशम जैसी रुई निकल कर इधर-उधर उड़ती। तब कुछ दिन उस उड़ती रुई को मुट्ठी में पकड़ने का खेल चलता। आम में बौर लग जाते। उन पर कभी तितलियाँ और भौंरें मँडराते तो कभी नन्हीं-नन्हीं चिड़ियाँ एक डाली से दूसरी डाली पर फुदकते हुए शोर मचाती रहतीं।

नौवीं या दसवीं कक्षा में थी जब हिंदी की पाठ्य पुस्तक में सेनापति का यह कविता पढ़ी थी।
सेनापति माधव महीना में पलास तरु
देखि-देखि भाव कविता के मन आये हैं।
आधे अनसुलगि सुलगि रहे आधे मानो
बिरही दहन काम कोयला परचाये हैं।
हमने जिस तरह टेसू के फूलों को हाथ में लेकर इस कविता का मर्म समझा था, वह शायद ही आज किसी बच्चे को नसीब हो। टेसू के इन फूलों को देखिये -



थोड़े लाल और थोड़े काले - लगता है न जैसे आधा सुलगा और आधा बिना सुलगा कोयला हो? आज के बच्चे ने तो अंगीठी में जलते कोयले भी शायद ही देखे हों। पर हमने अपने घर में रोज़ देखे थे, इसीलिए सेनापति की यह उपमा दिमाग़ में ऐसी बैठी कि आज तक याद है।




लगभग उसी उम्र में एक बार होली पर दिल्ली से जयपुर जाना हुआ। तब तक कोटपूतली और बहरोड़ वाली सड़क नहीं बनी थी। अलवर होकर जाते थे। सुबह बहुत जल्दी दिल्ली से निकल गये थे। पापा गाड़ी चला रहे थे और मैंने उनींदी होने की वजह से उनके पास आगे बैठने की ज़िद नहीं की थी। शायद सचमुच सो भी गयी थी। अचानक अम्मा की आवाज़ से नींद खुली। हम अलवर से पहले कहीं अरावली की पहाड़ियों के बीच थे। चारों ओर की पहाड़ियों पर केवल टेसू के पेड़ थे। बल्कि उन्हें पेड़ कहना भी उचित न होगा। पेड़ों के नन्हें बच्चों जैसे थे, मुश्किल से तीन-चार फुट ऊँचे। लेकिन हर पौधा लाल-नारंगी फूलों से ढँका हुआ था। अपूर्व दृश्य था।

बहुत बाद में नरेंद्र शर्मा जी की कविता पढ़ी तो वह दृश्य फिर एक बार आँखों में कौंध गया --

पतझर की सूखी शाख़ों में लग गयी आग, शोले दहके
चिनगी-सी कलियाँ खिलीं और हर फुनगी लाल फूल लहके।
लो, डाल डाल से उठी लपट, लो डाल डाल फूले पलाश
यह है वसंत की आग, लगा दे आग जिसे छू ले पलाश।
लग गयी आग; वन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छूकर पलाश।
पलाश का पेड़

टेसू और पलाश के अलावा इसके दो और नाम मिलते हैं। आम बोलचाल में ढाक और साहित्य में किंशुक। किंशुक नाम इसलिए पड़ा कि इसका फूल आगे से तोते की चोंच की तरह मुड़ा हुआ होता है। उसे देखकर संदेह होता है कि कहीं यह तोता तो नहीं। किं शुक ?

तो आप इसे पलाश कहिये या किंशुक, संस्कृत कवियों ने इसे वसंत के आगमन का प्रतीक माना है।

कुमारसम्भवम् में जब शिव की समाधि भंग करने के लिये देवराज इंद्र कामदेव को भेजते हैं और वह अपने परम मित्र वसंत को साथ लेकर हिमालय पहुँचता है, तब उनके आते ही पूरा वन प्रदेश नयी-नयी कोंपलों और फूलों से गमक उठता है। कालिदास ने यहाँ जिन पेड़ों के फूलने का ख़ास तौर पर उल्लेख किया है, वे हैं - अशोक. आम, कर्णिकार और पलाश। पलाश के बारे में कहते हैं -

बालेन्दु वक्त्राण्यविकासभावाद्बभुः पलाशान्यतिलोहितानि।
सद्यो वसन्तेन समागतानां नखक्षतानीव वनस्थलीनाम्।।
बाल चन्द्रमा के से आकार वाले पलाश के अत्यन्त लाल-लाल फूल चारों ओर ऐसे फैले हुए थे मानो वसंत ने आते ही वनस्थली के साथ विहार किया हो।



कवि कुल गुरु कालिदास ही नहीं, विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी जब वसंत के आगमन की बात करते हैं तो पलाश को ज़रूर याद करते हैं। कैसे राशि-राशि अशोक और पलाश के पेड़ रंगों में विहँस रहे हैं -
रांगा हांशी राशि-राशि अशोके पलाशे
रांगा नेशा मेघे मेशा प्रभात आकाशे
नबीन पाताय लागे रांगा हिल्लोल द्वार खोल द्वार।
ओ रे गृह बाशी
हमारे इस विशाल देश में तेज़ी से उगते जा रहे कंक्रीट के जंगलों के बीच कुछ तो कोने ऐसे होंगे जहाँ अशोक और पलाश अब भी फूलते होंगे। टिड्डे और मधुमक्खियाँ अब भी फूलों पर मंडराती होंगी। माधवी लता से बहकर आती हवा उसकी भीनी खुशबू से अब भी सराबोर रहती होगी। लेकिन हमारे पास अब वो आँखें कहाँ कि हम उन्हें देख सकें? वह हृदय कहाँ कि उन्हें सराह सकें? और उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह कि इतना समय कहाँ कि उस बारे में सोच सकें? शिवमंगल सिंह सुमन जी ने लिखा है 
अब चाहूँ भी तो क्या रुककर रस में भिन सकता हूँ?
चलती गाड़ी से बिखरे- अंगारे गिन सकता हूँ?
अब तो काफी हाउस में रस की वर्षा होती है
प्यालों के प्रतिबिंबों में पुलक अमर्षा होती है।
टेबल-टेबल पर टेसू के दल पर दल खिलते हैं
दिन भर के खोये क्षण, क्षण भर डालों पर मिलते हैं।
पत्ते अब भी झरते पर कलियाँ धुआँ हो गई हैं
अंगारों की ग्रंथियाँ हवा में हवा हो गई हैं। 

Comments

  1. पतझर की सूखी शाख़ों में लग गयी आग, शोले दहके
    चिनगी-सी कलियाँ खिलीं और हर फुनगी लाल फूल लहके।
    लो, डाल डाल से उठी लपट, लो डाल डाल फूले पलाश
    यह है वसंत की आग, लगा दे आग जिसे छू ले पलाश।
    लग गयी आग; वन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश
    लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छूकर पलाश।

    पलाश
    सौ. शुभ्राजी, स स्नेह नमस्ते
    पूज्य पापा जी पंडित नरेंद्र शर्मा जी की कविता तथा आपके शैशव के दोनों की यात्रा मनोरम प्रकृति के संग करना सुखद रहा। फिर यही कहूँगी आप बहोत अच्छा लिखती हैं , यूं ही लिखतीं रहिएगा।
    - लावण्या



    - नरेंद्र शर्मा

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    1. शब्द शिरोमणि,रस शिरोमणि आदरणीय कवि नरेंद्र शर्मा जी द्वारा रचित कविता पतझड़ की सूखी शाखों पर लग गई आग...... मेरे हृदय को पलाश के फूल की भांति सुंदर कर गई मैं एक छोटा सा न्यूज चैनल का संपादक हूं कैसा भारत के नाम से यू ट्यूब पर हमारा चैनल है मैं पलाश के वृक्षों पर एक स्टोरी करने जा रहा हूं क्या मैं आपसे आपकी कविता को चैनल पर पढ़ने की अनुमति प्राप्त कर सकता हूं मैं आपकी रचना को पढ़कर स्वयं को गौरवान्वित समझूंगा मेरा नंबर 9415179022 उचित समझें तो अनुमति what's app करें।सादर

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  2. Sarita Snigdh Jyotsna : रोचक संस्मरण. ...थोड़ी देर के लिए लगा शांति निकेतन में ही टहल रही हूँ. ....कौन सा स्कूल था? मुझे भी फूलों और प्रकृति से बहुत प्यार है ....माधवी लता का ज़िक्र किया है आपने , तो लीजिए मेरे ठिकाने से एक तस्वीर
    Sarita Snigdh Jyotsna's photo.

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    1. देख रही थी, इसीलिये टैग किया। बनारस में वसन्त कन्या महाविद्यालय VKM.

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    2. sarita snigdh jyotsnaSaturday, May 28, 2016

      जी, एनी बेसेन्ट स्कूल में एक बार गयी थी।वहां भी कुछ ऐसा ही दृश्य था।

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  3. मुझे हरसिंगार और नागचम्पा एवं किंशुक पुष्प खास प्यारे है.

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  4. Sarita Lakhotia :
    Bahut sundar Shubhra....padh kar Bachpan aur College ka samay yaad aa gaya....Tumhaari lekhani par sachmuch Saraswati vaas karti hain.....Pedon ke sundar sundar naam aur unki khoobiyan aaj ki yuva pidhi se koson door ho gayi hai......Bela...Joohi....Champa ...Chameli....aadi phoolon ki gamak aaj bhi hame madmast kar deti hai aur unke saath hamara taadatmya sthaapit ho jaata hai......
    I love your way of Expression !!

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  5. Suman Keshari :
    क्या बात...मजा ही आ गया। बचपन याद आया। अभी पिछले दिनों ही मैंने एक पार्क में घूमते हुए सेमल का एक पूरमपूर डोडा उठा लिया था...और उसे संबाल कर रख दिया है, पूजा के आले में...ये प्रकृति ही तो है मेरी असली देवी...

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  6. Rita Prakash :
    Bahut accha likha hai shubhra ji mun khush ho gaya

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  7. Archna Pant :
    अहा ! कितना सुन्दर लिखा है !
    आपके और हममें से बहुतों के बचपन को पुनः सजीव करता हुआ ...
    वो मौलसरी, मोगरा, हरसिंगार, चमेली, चम्पा के फूलों की गमक ... हरे-भरे अशोक के पेड़, दहकते से पलाश के फूल ...और वो लाल-गुलाबी करोंदों से भारी झाड़ियाँ ... सब कुछ कितना मादक, कितना अद्भुत !
    (इन्ही सब के बीच में बड़ी हुई हूँ मैं भी .... जयपुर के घर में कैसे फलते फूलते थे सब !)
    कमाल इस बात का है कि आपने फूलों की उन झाँकियों को, उनकी ख़ुशबू को, ऋतुओं के सारे उत्सव को अपने शब्दों से छू कर ... किसी शापित अहिल्या सा पुनः सप्राण कर दिया !
    माँ सरस्वती का वरद हस्त जो है आप पर !
    वरद हस्त ही क्यों... वो तो स्वयं आपमें ... आपके नाम में अपनी प्राण प्रतिष्ठा किये बैठीं हैं !
    तभी तो .... आपके गद्य में भी कविता बहती है !

    किसी सुघढ़ गृहस्थिन सी ... मामूली से मामूली साग-भाजी सी बातों को उठा कर .... अपनी मेघा के जादू से और एक से एक उपमाओं, उद्धरणों में पका कर नित्य नए व्यंजनों की भरी थाल सा परोस देतीं हैं आप !
    कितनी सुन्दर सुन्दर कवितायेँ रचीं गयीं हैं पलाश को लेकर ... आप न बतातीं तो जान पाते हम भला ?

    कहीं पढ़ा था मैंने कि गीत गोविन्द में भी पलाश का विवरण इस रूप में आया है ...

    उन्मद-मदन-मनोरथ-पथिक-वधूजन-जनित-विलापे।
    अलिकुल-संकुल-कुसुम-समूह-निराकुल-वकुल-कलापे॥ (विहरति…)॥२॥
    मृगमद-सौरभ-रभस-वशंवद-नवदलमाल-तमाले।
    युवजन-हृदय-विदारण-मनसिज-नखरुचि-किंशुकजाले॥ (विहरति…)॥३॥

    ( अर्थात - इस बसंत ऋतु से समस्त संसार आनंदित होता है. श्री कृष्ण नारायण स्वरुप जगत के कर्ता बसंत में दुर्जनादी उदाल्लमों से अभिलिप्त कहे जाते हैं. नारायण प्रोषिताओं की पीड़ा को जानते हुए भी इनके विरह जनित विलाप की बसंत के रूप में अनदेखी करते हैं. ये पथिक वधुएं कामदेव से पीड़ित हुई जब वकुल पुष्प पर भ्रमर को बैठे देखतीं हैं तो और भी पीड़ित हो जातीं हैं. तमाल वृक्षों की कस्तूरी सुगंध निकुंज वन में व्याप्त है जो पलाश पुष्पों से वेष्टित स्वर्ण आभायुक्त हो रहा है. ऐसा प्रतीत होता है कि कामाग्नि से दहन हृदयों को और विदीर्ण करने के लिए निज नखों को और भी तीव्र एवं विस्तृत कर रहा है !)

    आप का एक एक आलेख सचमुच सांस्कृतिक धरोहर है ... काश कि कोई सचेत साहित्यिक संस्था इनको सहेजने का उपक्रम कर पाए !

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