लट उलझी सुलझा जा रे मोहन

आज फेसबुक पर एक मित्र ने अपनी बगिया में खिले मोगरे का चित्र पोस्ट किया था।  उनकी श्रीमती जी उसी मोगरा के फूलों का खूब सघन सा गजरा भी बालों में बाँधे हुए थीं।  देखते ही मुझे एक बड़ा पुराना गीत याद आ गया। मैंने उसी गीत की पहली पंक्ति दोस्त की दीवार पर चिपका दी।

लट उलझी सुलझा जा रे मोहन, कर मोरे मेंहदी लगी।
माथे की बिंदिया अबरू पे आ गयी
अपने हाथ लगा जा रे मोहन, कर मोरे मेंहदी लगी।

गीत उन्हें पसंद आया। पूछने लगे - किसका गीत है, किसने गाया है?
मैंने कहा - भाई, मेरी नानी यह गीत गाती थीं।  मूल गीत तो मैंने कभी सुना ही नहीं।
कहने लगे - मैंने तो सोचा था कि आपके पास से कोई बहुत पुराना, अनसुना गीत सुनने को मिलेगा।

मैंने चैलेंज स्वीकार किया और इंटरनेट पर रिसर्च में पिल पड़ी। दो गीत दिखाई दिये। एक में कोई महात्मा जी मोहन की भक्ति में तल्लीन थे और दूसरे में मलका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ मोहन से नहीं, अपने बालम से कह रही थीं उलझी लट सुलझाने को। दोनों गीतों की धुन वह नहीं थी जो मेरे कानों में गूँज रही थी।

लिहाज़ा मैंने रिसर्च को थोड़ा और विस्तार दिया।  इस बार कुछ अधिक गुरु-गम्भीर चेहरे सामने आये। एक थे उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब और दूसरे पंडित जसराज।  मुझे लगा मेरी नानी भला इन दिग्गजों की, इनकी बंदिशों की नक़ल कैसे कर सकती थीं।  हाँ, कानन देवी और सहगल साहब के गाने अक्सर गाया करती थीं। मुझे सुलाने के लिए जो लोरी गाती थीं, वह थी सहगल साहब की - सोजा राजकुमारी सो जा।

मुझे लगा, हो न हो, उलझी लट सुलझाने का अनुरोध भी या तो सहगल साहब से किया जा रहा होगा या फिर वही नायिका की ओर से गाकर यह अनुरोध कर रहे होंगे। लेकिन ऐसा कोई गीत सहगल साहब के गीतों में प्राप्त नहीं हुआ।

तब मैंने बड़े डरते-डरते बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब के दरवाज़े पर दस्तक दी। राग बिहाग के हलके से आलाप के बाद ठुमरी शुरू हुई तो मेरा दिल बल्लियों उछल पड़ा।  यही सुर तो न जाने कबसे मेरी स्मृति में दर्ज थे।

तबसे जब न तो आज की तरह सूखी मेंहदी के पैकेट मिलते थे, न गीली मेंहदी के कोन।  हाथों में मेंहदी रचाने का शौक़ हो तो किसी पड़ोसी से अनुमति लेकर, उनके बँगले की बाड़ से मेंहदी की पत्तियाँ तोड़ कर लायी जाती थीं, घर के सिल- बट्टे पर पीसी जाती थीं और नाखूनों के इर्द-गिर्द बस यूँ ही लपेट दी जाती थी। ज़्यादा शोर मचाते तो बीच हथेली पर चवन्नी बराबर एक गोली और रख दी जाती थी कि लो इस पर मुट्ठी कस लो।  और हम उस चवन्नी भर मेंहदी को हाथों में कसकर जितने खुश होते, उतनी ख़ुशी अब ढाई सौ रुपये में एक हाथ पर फूल-बूटे कढ़वा कर हासिल नहीं होती क्योंकि इस मेंहदी में न तो पत्तियां तोड़कर लाने वाले की विजयी मुस्कान है, न पीसने वाली के पसीने की ख़ुशबू और न ही मचिया पर बैठकर गाती हुई नानी का स्वर --

लट उलझी सुलझा जा रे मोहन   ......

नानी तो अब हैं नहीं वरना उनसे पूछती कि उन्होंने "बालम" को "मोहन" में क्यों बदल डाला था। वैसे मैं जानती हूँ कि उनका जवाब क्या होता।  हँसकर कहतीं कि सास-ससुर के सामने आलम-बालम थोड़े ही गा सकते थे इसलिए भगवान का नाम लेकर गाते थे।  वो भी ख़ुश और हम भी ख़ुश।

तो लीजिये मेरी नानी का वही प्रिय गीत उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ की आवाज़ में सुनिये और हो जाइये ख़ुश।



और अब सुनिये वही बंदिश थोड़े से फेर-बदल के साथ पंडित जसराज जी से -

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