अविस्मरणीय रेलयात्रा

भगवान बुद्ध ने अच्छा किया था कि अपरिग्रह को सत्य, अहिंसा, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के बराबर महत्त्व दिया था। अपने को कोई नुकसान न हो रहा हो तो हम हिंदुस्तानी अमूमन सच बोल लेते हैं, अहिंसा का पालन कर लेते हैं, चोरी से भी बच लेते हैं और देर-सबेर ब्रह्मचारी भी बन जाते हैं। एक ही काम है जिसमें हम कच्चे हैं, और वो है अपरिग्रह। किसी भी घर में जाकर देखिये - पुरानी डायरियों से लेकर गाड़ी के पुराने टायर तक तमाम चीज़ें कहीं कोने-अँतरे में पड़ी मिल जायेंगी। यह हमारा राष्ट्रीय अवगुण है कि हम कभी कोई चीज़ फेंकते नहीं, इस उम्मीद में सहेजकर रख लेते हैं कि कभी न कभी काम आ सकती है।

किसी और को क्या दोष दूँ, मैं ख़ुद भी इस मर्ज़ की शिकार हूँ। टूटी मालायें, बटन, साड़ियों के फ़ॉल, पिछले साल की राखियाँ, शादियों के कार्ड से उखाड़े गणेश, और यहाँ तक कि पिछली दीवाली के जले हुए दिये तक मेरे संग्रह में मिल जायेंगे। हाँ, यह ज़रूर है कि मैं जल्द ही उनके इस्तेमाल के तरीक़े ढूँढ लेती हूँ।



पहचान रहे हैं? दीवाली पर इन मटकियों में दीप जले थे पर अब ये पौधों के गमले बन गये हैं। कुछ इसी तरह का इस्तेमाल मैंने सुराही के स्टैंड का भी किया है। ये मेरे बचपन की यादगार है, जिसे मैं अपने हर नये घर में साथ रखती आयी हूँ। ऐसा लगता है कि अब ग्रेटर नॉएडा का यही घर इसका अंतिम पड़ाव होगा इसलिये इसे भी हीले से लगा दिया है।




मेरे नानाजी उत्तर प्रदेश के लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर थे। अपने पूरे सेवाकाल में कार या जीप से दौरे करते रहे लिहाज़ा ज़रूरत से ज़्यादा सामान साथ लेकर चलने की आदत थी। ये जूता भी रख लो, ये छड़ी भी रख लो, पूजा वाला पीताम्बर भी रख लो। जब तक ये छिटपुट चीज़ें गाड़ी में भर ली जाती थीं, तब तक तो सब कुछ ठीक रहा। लेकिन जब रेलयात्रा में भी उनका यही हाल रहा, तब बहुत मुश्किलें पेश आयीं। नानाजी, नानी और मैं, तीन लोगों के टिकट के साथ कम से कम चौदह नग सामान चलता था। एक आदमी की ड्यूटी हर स्टेज पर इन नगों की गिनती करने की रहती।



पूरे नवाबी ठाठ-बाट से सामान बाँधा जाता। स्टील के ट्रंक और लपेटकर बाँधे जाने वाले बिस्तरबंद निकाले जाते। खाना ले जाने के लिये स्टील का चार डिब्बों वाला टिफ़िन कैरियर और पानी के लिये सुराही स्टैंड स्टोर रूम से ढूँढ़कर निकाले जाते। नानी के ठाकुर जी के लिये एक लकड़ी की सन्दूकची थी, जिसमे हवा के लिये बड़े आर्टिस्टिक छेद कटे हुए थे। उस सन्दूकची में कई गद्दे बिछाकर ठाकुरजी लिटाये जाते थे। सन्दूकची को लाल रेशमी कपडे से बाँधकर ले जाया जाता था ताकि हवा का प्रवेश हो, छूत का नहीं। नानी यात्रा में खाना नहीं खाती थीं इसलिए प्रचुर मात्रा में बेसन के लड्डू और मठरी बनाये जाते, जो पीतल के बड़े से कटोरदान में रखकर ले जाये जाते थे। पानदान, बेटियों के यहाँ दी जाने वाली बनारसी मिठाई और उड़द की बड़ियाँ तक तो मैं बाँध ले जाती थी लेकिन जब बात उनकी छड़ी और छतरियों की आती, तब मुझे विरोध करना ही पड़ता था।

आपको क्या लगता है, अम्मा के पास छाता नहीं होगा? - मैं झींकती।

अरे बेटा, एक छाता रखने से कौन ट्रेन का बोझ बढ़ जायेगा। - वे तर्क देते

बहस आगे बढ़कर विकराल रूप न ले ले, इस डर से नानी मध्यम मार्ग सुझातीं - अलग नग नहीं बनेगा, होल्डाल के बीच में डाल देना।

आख़िरकार नियत दिन-तारीख को चौदहों नग के साथ यात्रा शुरू होती और अगले दिन सुबह दिल्ली पहुँचकर ख़त्म भी हो जाती। लेकिन मेरी मुसीबत ख़त्म नहीं होती क्योंकि दिल्ली पहुँचते ही उन्हें अपना स्वेटर, पैर ढँकने का शॉल, और जप की माला याद आनी शुरू हो जातीं।

वैसे मेरे जीवन की सबसे अविस्मरणीय यात्रा थी लखनऊ से मुंबई तक। पापा का तबादला लखनऊ से पणजी हुआ। गोवा कुछ समय पहले ही पुर्तगालियों के शासन से मुक्त हुआ था, सो सबसे पहले उसे देखने के घमंड में चूर थी मैं। ऊपर से सोने पर सुहागा यह कि अपनी सब सहेलियों से पहले बम्बई जा रही थी।




ज़्यादातर सामान लगेज वैन में बुक किया जा चुका था। हमारे साथ सिर्फ ज़रूरी कपड़े भर थे। गर्मी के दिन थे इसलिए फर्स्ट क्लास कूपे में एक बड़ी-सी अल्युमिनियम की ट्रे रखी गयी थी, जैसी कूलर में पानी भरने के लिए होती है। इसमें बर्फ की बड़ी सी सिल रखी गयी थी ताकि ठंडक रहे। ट्रे में लखनऊ की तमाम सौगातें - दसहरी आम, ख़रबूज़े, ककड़ियाँ भी जमा दी गयी थीं। मैं महा थ्रिल्ड! खाना-वाना खाने के बाद ऊपर की बर्थ पर लेटकर अपनी बाल पत्रिकायें पढ़ते-पढ़ते कब सो गयी, पता ही नहीं चला। तभी अम्मा के बहुत घबराये हुए स्वर से नींद खुली। कह रही थीं - बेटा उठ! मनु उठ! पापा छूट गये हैं और मुझसे ये चेन नहीं खिंच रही।

देखा तो अम्मा पूरा ज़ोर लगा रही थीं लेकिन गाड़ी रोकने वाली ज़ंजीर टस से मस नहीं हो रही थी। मेरे सर के पास ही थी वो ज़ंजीर। बस, मैंने ऊपर की बर्थ से कलैया खायी और ज़ंजीर पकड़ कर लटक गयी। तब तक गाड़ी की स्पीड कम होने लगी थी। कुछ ही देर में सुराही लिये पापा आ गये। उन्होंने बताया कि गाड़ी चल दी तो वे किसी और डिब्बे में चढ़ गये थे और जब गाड़ी रुकी तो वापस आ गये। शायद किसी ने चेन खींच दी है।

अम्मा ने रुंआसे स्वर में कहा - किसी ने नहीं, हमने ही खींची है। बल्कि मुझसे अकेले नहीं खिंची तो मनु ने भी मदद की। पापा हँसते हुए आये थे पर यह सुनकर एकदम गम्भीर हो गये। वहाँ साफ़ लिखा हुआ था - बिना कारण ज़ंजीर खींचना दंडनीय अपराध है।

तभी रेल विभाग के कई कर्मचारी चेन खींचने वाले की ख़बर लेने आ पहुँचे। अम्मा ने उनसे कहा कि मेरे पति छूट गए थे इसलिए मैंने चेन खींची। आख़िर ऐसी ही एमर्जेंसी के लिए तो चेन लगाई गयी है।

लेकिन रेलवे वाले इसे एमर्जेंसी मानने को तैयार ही नहीं थे। काफ़ी देर की बहसा-बहसी और कई आम-खरबूजों का भोग लगाने के बाद वे चेन खींचने को दंडनीय अपराध ना मानने पर राज़ी हो गये। वरना शायद मुझे और अम्मा को बम्बई की सैर के बजाय इटारसी की जेल की सैर करनी पड़ती।

Comments

  1. Tulika Sharma : अहा दिदिया
    आपको पढ़ना हमेशा जीना होता है
    दृश्य में हम भी होते हैं साथ साथ

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  2. Nutan Mishra : मज़ा आ गया...ऐसी रेलयात्रा...उतरने का मन ही ना करे😊

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  3. वाह दीदी, मज़ा आ गया... पूरा पढ़ते-पढ़ते अनजाने ही मैं भी फ्लैश बैक में चली गयी... पुरानी टूटी-फूटी चीज़ों के संकलन से लेकर रेल यात्रा तक हर बात कहीं न कहीं अतीत की यादों में ले जा रही है... जब मैं छोटी थी, हर गर्मी की छुट्टियों में मम्मी के साथ अपने ननिहाल कानपुर जाती थी... और साथ में एक टीन का बक्सा और सुराही ज़रूर होती थी, साथ ही एक छोटा सा टीन का बक्सा मेरा भी होता था जिसमें मेरी तमाम छोटी-छोटी चीज़ों का पिटारा होता था... और उस पिटारे में वही ऊट-पटाँग चीज़ों का कलेक्शन....
    इस तरह के कलेक्शन के मामले में मेरे दादाजी का तो कोई जोड़ ही नहीं था... छोटे-मोटे नट-बोल्ट से लेकर पेन की निब... साइकिल की तीली... छाते की कमानी... मतलब दुनिया की कोई भी अजूबी से अजूबी चीज़ उनके पिटारे से निकल सकती थी...
    वाकई दीदी आप इतना सुन्दर और सहज लिखती हैं कि लगता है हम पढ़ नहीं रहे बल्कि सबकुछ चलचित्र की तरह सामने घट रहा है :)

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  4. भगवान बुद्ध के अपरिग्रह को यात्रा के साथ जोड़ना आपके ही कलम की कारीगरी हो सकती है। बहुत ही सुंदर तस्वीरों से सजी और जीवन के उद्देश्य को समझाती रेलयात्रा। पढ़ कर मज़ा आ गया।

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  5. Suman Sharma : वाह क्या बात है शुभ्रा जी, फेसबुक पीपल की चौपाल है. हम सब एतिहासिक किस्सों का मजा ले रहे हैं, इतिहास जानने का सशक्त माध्यम है यह, जारी रहे

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  6. Madhukar Sharma : Very nicely explained with minute details. Great!!!

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  7. Sarita Lakhotia : Hasya ki haseen chaashni me lapet kar parosi yatra ki yaadgaar baaten tumhari lekhni hi likh sakti hai......45 years old memories !! N as fresh as we are passing through it just now.....
    Nanaji...Naniji....Surahi....Peetal ka Katordaan....Bistarband ....sab mujhe apna Bachpan yaad dilate hain....jahan ek sharaarti ladki har baat par hansti thi aur hansaati thi..........:-)

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