पापा की पुत्रिका
पापा ने ही बंकिम बाबू के वन्दे मातरम् से लेकर मुझे शुभ्रा नाम दिया था। पुकारने का नाम मनु वैसे तो नानी ने रखा था, मगर उसका शुद्धतम रूप में उपयोग केवल पापा करते थे। बाकी लोग उसे अपनी-अपनी मुख-सुविधा के अनुसार बदल लेते थे। जैसेकि नानी मुझे हमेशा मानू बुलाती रहीं। नानाजी ने मनुआ बुलाना शुरु किया तो बहुत सारे लोग उन्हीं का अनुकरण करने लगे। अम्मा ने ज़रा हटकर मनिया कर दिया। कवयित्री हैं, सो बिटिया के लिये लोरी लिखी -
सोये सोये रे मेरी मनिया, मेरी मनिया को आये निंदिया।
कुछ बड़ी हुई तो देखा कि मेरी पर-ननिहाल में, यानीकि मेरी अम्मा की ननिहाल में मुझसे छोटे बच्चों की पूरी क्रिकेट टीम खड़ी हो चुकी थी। रिश्ते मे तो वो सब मेरे मामा और मासी थे लेकिन डील-डौल से मैं उन सब पर भारी पड़ती थी, इसलिये उन सब ने मुझे मन्नू जिज्जी बुलाने में ही अपनी ख़ैरियत समझी। गेंदतड़ी, आइस बाइस, या ऊँच नीच खेलते हुए ये नाम ज़रा लंबा पड़ता था, इसलिये इसका शार्ट वर्ज़न मनुज्जी ज़्यादा प्रचलित हो गया। अब उन सबके पति अथवा पत्नियों और बच्चों को मिलाकर लगभग साठ लोग इसी प्रचलित नाम का इस्तेमाल करते हैं।
मज़े की बात तब हुई जब मेरी होने वाली बहू ने बताया कि उसकी माँ इन्द्राणी का भी पुकारने का नाम यही है - मानू, जबकि उनकी छोटी बहनों में से एक शानू हैं और दूसरी अनु। तो अब रिश्ता कुछ इस तरह बनता है कि हमारे शानू श्रेयस की मासी सास शानू हैं, और माँ और सास दोनों मानु।
लेकिन बात शुरु हुई थी पापा से......पापा अगर आगे-पीछे बेटा लगाये बग़ैर सिर्फ़ मनु कह कर पुकारते तो मैं डर जाती थी क्योंकि इस तरह बुलाने का साफ़ मतलब था कि मेरी कोई ग़लती पकड़ी गयी है। मैं पापा के पास सिर्फ़ छुट्टियों में जाती थी और बराबर इसी कोशिश में रहती थी कि उन्हें नाराज़ न करूँ। वे मुझसे नाराज़ होते भी नहीं थे। बस, उनकी नज़र में एक ही अक्षम्य अपराध था - चीज़ों को उनकी निर्धारित जगह पर न रखना। उनकी कलम, कंघी, चाबी, हर चीज़ की जगह तय होती थी। काम में लेने के बाद चीज़ को ठीक उसी जगह, उसी तरह रख दो तो कोई झंझट नहीं थी, वरना वे बहुत नाराज़ होते थे और फिर बहुत देर तक यथास्थान वाला भाषण सुनाते थे।
पापा जब कभी बहुत दुलार में आते तो मुझे अपना भोंदू बच्चा कहते। ज़्यादा ही मूड में होते तो गा-गाकर भोंदू का रूप चलाते - भोंदु - भोंदू - भोंदव:।
और मैं उनके दुलार से निहाल होते हुए भी ऊपर-ऊपर से झगड़ा करती - "आपने फिर हमें भोंदू कहा। जाइये, हम आपसे बात नहीं करते।"
और वे हँसकर कहते - 'तुम्हें कहाँ कहा? हम तो भोंदू का रूप याद कर रहे हैं।"
और अगले इतवार को फिर यही संवाद दोहराया जाता।
कभी-कभी पापा मुझे "पुत्रिके" कह कर भी बुलाते। यह संबोधन हमेशा किसी गंभीर बातचीत का संकेत होता, जिसमें मेरी राय की ज़रूरत होती। मसलन इस बार गर्मी की छुट्टियों में कहाँ जाना है या अगली गाड़ी कौन सी लेनी है, ऐसे किसी अहम मुद्दे पर जनमत संग्रह कराना होता तो पुत्रिके कह कर आवाज़ लगाते।
अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले जयपुर गये थे और वहाँ से कुछ पुस्तकें लेकर आये थे। उनमें से दो मुझे सौंपते हुए बोले - ये लो। शानू आजकल मधुशाला गाता है, तो यह उसे दे देना। और यह मनुस्मृति मैं तुम्हारे लिये ले आया हूँ। पुरानी वाली फट रही थी।
जयपुर से लौटने के तीसरे दिन उन्हें ज़बरदस्त ब्रेन हैमरेज हुआ और अगले ही दिन चले भी गये। क्या करना है क्या नहीं, मैं कुछ जानती नहीं थी और कोई बताने वाला भी नहीं था। मुझे लगा कहीं वे इसीलिये तो मुझे मनुस्मृति नहीं पकड़ा गये थे कि मैं इस भटकन में राह तलाश सकूँ। मैं गीता का दूसरा अध्याय पढ़ने के बाद मनुस्मृति लेकर बैठ गयी। श्राद्ध वाला अध्याय पढ़ना शुरु किया तो देखा, किसी व्यक्ति की एक ही संतान- कन्या हो तो उसे पुत्रिका कहते हैं और उसके पुत्र यानी पुत्रिका-पुत्र को नाना के दाहकर्म से लेकर पूरे अंतिम संस्कार करने का अधिकार होता है।
मन में सवाल उठा क्या पापा यह सब जानते थे? क्या इसीलिये वे मुझे पुत्रिका बुलाते थे?
आज आप फिर हमे ले गईं अपने अतीत में। हम ने महसूस किया आपका अपनों पर स्नेह। अपनी यादों को साझा करने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteआज आप फिर हमे ले गईं अपने अतीत में। हम ने महसूस किया आपका अपनों पर स्नेह। अपनी यादों को साझा करने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteKalpana Mishra : Speechless... आज मैं बस इन भावों में डूब रही हूँ... आज मेरे पास कुछ भी कहने को शब्द नहीं....
ReplyDeletePratima Sinha : मन विह्वल। आँख नम।
ReplyDeleteVikrant Bharadwaj : Speechless...
ReplyDeletePooja Bharadwaj : Jiji, beti aur pita ka Sambandh itne achche se aur koi Nahin bayan Kar Sakta tha... Yeh Rishta aur bhav wakai Anmol hein aur yeh Ek beti Sr badkar koi Nahin samajh Sakta.... Bahut sundar likha hai
ReplyDeleteArchna Pant : ओह ! कितना मार्मिक !
ReplyDeleteअभी अभी हँस रहे थे बचपन की ख़ुराफ़ातों पे ... और अभी अभी में आँखें भर आयीं .. ये मोज़ज़ा तो सिर्फ़ आपकी क़लम से हो सकता है !
आपकी लेखनी बहा ले जाती है अपनी रवानी में .... जैसे कोई सम्मोहन कर्ता हाथ थाम ले हमारा और हम मंत्रमुग्ध उसके पीछे पीछे चल दें सारी सुध-बुध बिसार ...
फिर कैसी रंग बिरंगी अलियाँ-गलियाँ आपके बचपन की ... ढेर सी चुहल, ढेर शरारत, लाड़-दुलार, मान-मनुहार ... और अगले ही पल जैसे कोई स्याही सी बिखेर दे सारे चित्र पे ... हँसते हँसते आँसू छलक आयें ... और हम कि हैरत से कभी आपके लिखे को देखें ... कभी अपने को !
Bahut acha laga sun kar, bachpan ki baatein yaad a gaye.
ReplyDelete-Veena
एक सांस में पूरा पढ़ गए जिज्जी।
ReplyDeleteकहां से कहां ले गयीं आप। आंखें भिगो दीं।
जिसके इत्ते सारे नाम हो, वो तो होगा ही ना इतना बड़ा।
इसीलिए तो आप हमारी धमाका जिज्जी हैं।
लिखती रहिए। हम प्रतीक्षा में हैं।
Riveting write-up. Even more thought-provoking towards the end. Loved how its built up and then the last, emotional paras.
ReplyDeleteShreya Bhardwaj:------
ReplyDeleteBhut khub khnai h dil aa gya