सिनेमा के रंग, बनारसी मस्ती के संग


बनारस में फ़िल्म देखने का अपना ही मज़ा था। बालकनी या बॉक्स में बैठने के बावजूद आम जनों की टिप्पणियाँ कानों में पड़ती रहतीं और फ़िल्म का मज़ा दुगना कर देतीं।
जैसेकि एक बार मैं और मेरे तीन ममेरे भाई बनारस के ललिता सिनेमा में अनारकली देख रहे थे। अनारकली बीना राय को दीवार में चिनवाया जा रहा था। जैसे-जैसे अनारकली का चेहरा ईंटों से ढँकता जा रहा था, वैसे-वैसे उसकी करुण पुकार आँखों में नमी लाती जा रही थी -  "इसे मज़ार मत कहो, ये महल है प्यार का।"

शाहज़ादा सलीम बने प्रदीप कुमार घोड़ा दौड़ाते चले आ रहे थे।
तभी कोई सज्जन बोले - "जुल्फी नाहीं हिलत हौ, बे।"
सचमुच, इतनी तेज़ गति से दौड़ रहे घोड़े पर बैठे सलीम की क़रीने से सजी घुँघराली लटों का एक भी बाल बाँका नहीं हो रहा था।

इतने ग़मगीन माहौल में उनकी इस पैनी नज़र वाली टिप्पणी पर पूरा हॉल ठहाकों से गूँज उठा।
घोड़े से गिरकर, कोहनियों के बल ज़मीन पर घिसटते हुए प्रदीप कुमार जब किसी तरह नयी बनी दीवार तक पहुँचे, बहुत देर हो चुकी थी। "अलविदा, अलविदा" का क्रेसेंडो शांत हो चुका था। मशालें लिए राज-मिस्त्री वापस लौट रहे थे। प्रदीप उठकर दीवार तक पहुँचे और उस पर अपना सर दे मारा। नाकाम आशिक़ ने अपनी महबूबा हमेशा के लिए खो दी थी। सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी माज़ी के पन्नों में दफ़न हो गयी थी।
बनारस के लोग भला ऐसी नाइंसाफ़ी पर चुप कैसे रह सकते थे ? फ़ौरन राय दे डाली - "अबे, अबहीं मरल न होई। खनके निकाल ले, राजा।"
(अबे, अभी मरी नहीं होगी। खोदकर निकाल लो।)

चौक के चित्रा सिनेमा में बड़ी धूम-धाम और फ़ैनफ़ेयर के साथ बी.आर.चोपड़ा की वक़्त फ़िल्म रिलीज़ हुई। वो पहली मल्टी-स्टारर फिल्म थी। साधना और शर्मिला टैगोर के अलावा राज कुमार और सुनील दत्त के दीवानों की भी बनारस में कमी नहीं थी। "अपार भीड़ भरे" किसी सप्ताह में हम भी यह फ़िल्म देखने गए। फ़िल्म के एक दृश्य में सुनील दत्त फ़ोन पर साधना से बात कर रहे थे। बात क्या कर रहे थे, उन्हें अपने सपने के बारे में बता रहे थे - "मैंने एक ख्वाब सा देखा है"
साधना ने कहा - "ज़रा मैं भी सुनूँ "
-"सुनके शर्मा तो न जाओगी?"
- "नहीं, तुमसे नहीं।"
सुनील बताने लगे - "मैंने देखा है कि फूलों से लदी शाखों में तुम लचकती हुई यूँ मेरे क़रीब आयी हो।"
परंपरावादी बनारस के बाशिंदे दोनों की इस क़ुरबत के नज़ारे को हैरान-परेशान, साँस रोके देख रहे थे ।
सुनील का सपना पूरा हुआ तो बनारस वालों ने एक लंबी साँस छोड़ी।


तब तक साधना बोल उठीं - "मैंने भी एक ख़्वाब सा देखा है.........
हीरो का सपना तो किसी तरह बर्दाश्त कर लिया था लोगों ने लेकिन हीरोइन भी सपना देखे, यह हज़म करना मुश्किल था। हॉल में बैठे उनके कोई शुभचिंतक बोले - "ल, इहौ चललिन खाब देखे। ए महारानी तू रहे द। घरे जो।"
(लो, यह भी चलीं ख़्वाब देखने। ऐ महारानी! तुम तो रहने ही दो। जाओ घर जाओ।)

एक और दृश्य उभर रहा है, जिसकी नायिका मेरी नानी थीं। दीपक सिनेमा में शशि कपूर -शर्मिला टैगोर अभिनीत आमने-सामने फ़िल्म प्रदर्शित हुई। हम लोगों ने किसी फिल्मी पत्रिका में पढ़ लिया था कि उसमें शर्मिला ने टू-पीस बिकिनी पहनी है। लेकिन घर में इस बात का ज़िक्र नहीं कर सकते थे, वरना कभी देखने को नहीं मिलती। बल्कि घर में तो यह बताया कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी फ़िल्मों में काम कर रही है। सत्यजीत रे की फ़िल्म में भी काम कर चुकी है। इन दो बड़े नामों के बीच बिकिनी की खबर छिपाकर हम फिल्म देखने पहुँच गये। मैं, मेरी सहपाठी मित्र वीणा और मेरी नानी। बालकनी में हमारे अलावा शायद ही कोई महिला मूर्ति रही हो। पूरी बालकनी यूनिवर्सिटी के लड़कों से भरी थी।
आख़िरकार वह सीन भी आ ही गया जब शर्मिला बिकिनी में नज़र आती हैं।

मैं और वीणा कनखी से नानी को देख रहे थे कि अब फटा बम ! लेकिन शांति बनी रही। नानी ने परदे की ओर देखा और धिक्कार के से लहजे में कहा - "शिव -शिव।"
बालकनी में एक समवेत निःश्वास गूँजा और फिर कोने-कोने से लोग अपने-अपने इष्टदेव को याद करने लगे।
"राम-राम"
"हरे-हरे"
"नारायण-नारायण"
नानी ने गर्दन घुमाकर उन तमाम पुण्यात्मा जीवों को देखा और पास बैठे बालक से बोलीं - "बताओ, इतने बड़े ख़ानदान की लड़की --और क्या बाप-दादों का नाम रोशन कर रही है! अरे जब ऐसे-ऐसे कपडे पहनेंगी तो तुम लोग देखोगे नहीं क्या?"
लड़कों को आनंद आ गया। सबके सब - "जी माताजी, हाँ माताजी" में लग गये।
और मैं और वीणा गर्दन झुकाये हँसते रहे।
  

Comments

  1. लाजवाब :D
    छोटे शहरों के लोगों में एक अलग ही बेफिक्री और अल्हड़पन होता है.
    बढ़िया पोस्ट

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  2. बनारसी माहौल का एक अलग ही मज़ा है।

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  3. वाह! सचमुच मज़ा आ गया... पढ़ते पढ़ते ऐसा लगा मानो मैं अतीत में पहुंच गई हूँ और सब कुछ मेरे सामने घटित हो रहा है... सिनेमा हॉल में खाँटी बनारसी अंदाज़ में होने वाले कमेंट न सिर्फ़ चेहरे में मुस्कान लाने में क़ामयाब रहे बल्कि खुद के साथ भी घटी न जाने कितनी घटनाएँ याद दिला गए... लेकिन दीदी एक बात माननी पड़ेगी आपकी स्मरण शक्ति कमाल की है... छोटा से छोटा वाकया सिलसिलेवार यूँ याद रखना आसान नहीं 😊

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  4. वाह ! ये वर्णन, ये भाषा, ये अनुभूतिया, ये किस्सागोई ! बनारस को पढने का मजा किसी बनारसी की कलम से ही निकलता है। अद्भुत चित्रांकन चमकिया है आपने, अद्भुत चितेरी है आप। हो आये हम वो गलियां 😊🙏

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