असाढ़ का पहला दिन



कई बरसों बाद ऐसा सुयोग आया है कि जेठ महीने की पूर्णिमा का चाँद देखने छत पर निकली तो लू के थपेड़ों ने नहीं, शीतल मंद बयार ने शरीर का ताप मिटाया। वैसे कल रात चाँद पूरे से थोड़ा सा कम, यानी चौदहवीं का चाँद लग रहा था लेकिन पोथी-पत्रे के चक्करों से बचने के लिए मैंने कल पूर्णिमा और आज जेठ बदी प्रतिपदा मान ली है।

तो कल की ठंडी हवाओं से उम्मीद बँध गयी थी कि शायद कालिदास के शब्दों को सही साबित करते हुए असाढ़ का पहला दिन घन-घटाओं से लैस होगा।
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।
कुबेर के शाप के कारण एक साल के लिए अपने घर से और अपनी प्रिया से दूर विरही यक्ष ने आषाढ़ के पहले दिन बादलों से लिपटी पहाड़ की चोटी को देखा, तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई हाथी खेल-खेल में अपने सर की टक्कर से उसे गिराने की कोशिश कर रहा हो।



मैं भी कोई ऐसा ही नज़ारा देख पाने की आस में सुबह से अपने आठवीं मंज़िल के घर के खिड़की-दरवाज़े खोले बैठी थी। लेकिन दस बजते-न-बजते सूरज की वक्र दृष्टि का प्रहार झेलना कठिन हो गया, तब निराश होकर खिड़कियाँ बंद कर दीं और परदे खींच कर नीम अँधेरा कर लिया।

तीन बजे से फिर ठंडी हवा के झोंके आने शुरू हुए। आसमान भी साँवला-सलोना लग रहा था। बड़ी देर तक, बिमल दा की सुजाता का गीत गुनगुनाती बालकनी में खड़ी रही।

काली घटा छाये, मोरा जिया तरसाये, ऐसे में कहीं कोई मिल जाये
बोलो किसी का क्या जाये रे, क्या जाये रे, क्या जाये?



अब ज़ाहिर है कि साठ साल की उम्र में किसी ऐसे का इंतज़ार तो था नहीं जो "मेरे हाथों को थामे, हँसे और हँसाये, मेरा दुःख भुलाये"। इंतज़ार सिर्फ़ बरखा रानी का था कि वो आये, मुझे भिगाये और घमौरियों का दुःख भुलाये। लेकिन वो भी अजब ठसक में है। दो-चार बूँदें टपका कर अपने आस-पास होने का एहसास करा रही है लेकिन खुलकर सामने नहीं आ रही।

मुझे याद आ गयी मोहन राकेश की मल्लिका। वह भी आषाढ़ के एक दिन पर्वत प्रदेश की वर्षा में भीग कर आयी थी।

" चारों ओर धुँआरे मेघ घिर आये थे। मैं जानती थी वर्षा होगी फिर भी मैं घाटी की पगडण्डी पर नीचे उतरती गयी। एक बार मेरा अंशुक भी हवा ने उड़ा दिया। फिर बूँदें पड़ने लगीं।
बहुत अद्भुत अनुभव था माँ, बहुत अद्भुत। नील कमल की तरह कोमल और आर्द्र ! वायु की तरह हल्का और स्वप्न की तरह चित्रमय !"

बारिश में भीगती मल्लिका की कल्पना करने चलें तो सबसे पहले गुरु फिल्म की ऐश्वर्या राय सामने आ खड़ी होती हैं। ठीक भी है! विश्वस्तरीय कवि की कल्पना कोई विश्व सुंदरी ही तो होगी न?
बरसो रे मेघा-मेघा बरसो रे मेघा-मेघा बरसो रे मेघा बरसो।



बारिश में भीगना मुझे भी बहुत पसंद है। जमकर बरसात हो रही हो तो बंद कमरे में बैठना मेरे लिए असह्य हो जाता है।


​बारिश के मौसम में हमेशा खादी या हैंडलूम के कुर्ते पहनती हूँ, न जाने कब भीगने का मौक़ा मिल जाये। मौक़ा मिल गया तो ठीक, वरना खुरपी से खोदकर निकाल लेती हूँ।

नहीं समझे ? अरे भाई, बाहर रखे गमलों की साज-सँभाल करने पहुँच जाती हूँ। फिर मैं और मेरे पेड़-पौधे मिलकर बरसात का आनंद लेते हैं, जैसे ये दोनों ले रहे हैं -
सोना करे झिलमिल-झिलमिल, रूपा हँसे कैसे खिल-खिल
अहा अहा वृष्टि पड़े टापुर-टुपुर, टिप-टिप टापुर-टुपुर।

Comments

  1. Sarita Lakhotia : उज्जैन के पास कवि कालिदास की नगरी विदिशा देखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाई थी और उस नगरी को देखने जा पहुंची। मुझे न तो वैसा कोई चिन्ह वहां मिला और न ही उस महान कवि की विश्व प्रसिद्ध रचना मेघदूत की चर्चा करने वाला कोई बन्दा। ..... बड़ी निराशा हुई। तुम कालिदास का जिक्र छेड़ती हो तो मन प्रसन्न हो उठता है शुभ्रा.. वर्षा ऋतु का इतना सुन्दर वर्णन कर तुमने मन की चेतना को अंदर तक सींच दिया है...... साधुवाद।.....
    Me : तुम इतने मन से पढ़ती हो, तभी तो तुम्हें टैग करने का लोभ संवरण नहीं कर पाती। धन्यवाद सरिता।

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  2. Tripti Srivastava : bahut khub mam, bheegne ka man ho aya apki shararti lalak padhkar.

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  3. एक कविता मिली है, आप सब भी पढ़ें।

    आषाढ़ का पहला दिन

    सुन मेरी बच्ची!
    बादलों के जूते पहन कर
    हवाओं के घोड़े पर सवार होकर
    एक दिन
    कूदता फांदता आयेगा जब आषाढ़ का पहला दिन।
    तुम बंद कर देना खिड़कियाँ - दरवाजे।
    छुप जाए जब सूरज घटाओं में,
    और दिन बिजलियों की बाहों में मचलने लगे।
    तब तुम पहन लेना माँ के हेयरबैंड की चूड़ियाँ और बड़ी बहन के दुपट्टे की साड़ी।
    भूल जाना घर का आर ओ और टीडीएस।
    मत सोचना उस दिन कि आर्सेनिक का लेवल क्या है!
    और दौड़ जाना घर से बाहर
    जहाँ बस तुम रहो और आषाढ़ का ये पहला दिन रहे।
    भिगो देना मेरे चश्मे, रुमाल, कलम, घड़ियां सब।
    पटक कर तोड़ देना
    मेरे कंधे पर रहने वाले तौलिए का गुरुर।
    जानती हो अब आषाढ़ का पहला दिन झूम कर बरसता क्यों नहीं!
    तुमने ही तो वायरल फीवर के डर से भींगना छोड़ दिया।
    क्या करता आषाढ़! वो भी तो बच्चा है किसके साथ खेलता...
    सुनो! तुम फिर से बच्ची बन कर तो देखो
    आषाढ़ भी आषाढ़ न बन जाए तो कहना!

    असित कुमार मिश्र
    बलिया

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  4. अहा ! कितना डूब के लिखतीं हैं आप ... आँखों के आगे 'आषाढ़ का एक दिन' सचमुच सजीव हो गया ... मल्लिका का वो उन्माद, वो आह्लाद भी सप्राण हो गया ...
    "आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा, माँ !...ऐसी धारासार वर्षा ! दूर-दूर तक की उपत्यकाएँ भीग गईं।...और मैं भी तो ! देखो न माँ, कैसी भीग गई हूँ !.. गई थी कि दक्षिण से उड़ कर आती बकुल-पंक्तियों को देखूँगी, और देखो सब वस्त्र भिगो आई हूँ।
    कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयनम्रै:...(गीले वस्त्र कहाँ डाल दूँ माँ ? यहीं रहने दूँ ?)
    मृदुपवनविधूतैर्मंदमंदं चलद्भि:...अपहृतमिव चेतस्तोयदै: सेंद्रचापै:... पथिकजनवधूनां तद्वियोगाकुलानाम।"

    मेघों का, रिमझिम गिरती बूंदों का ऐसा मनोहारी वर्णन .. आहा !रोम-रोम भीग गया !
    डॉ.कविता वाचक्नवी जी की 'आषाढ़' कविता याद आ गयी ...

    "जंगल पूरा
    उग आया है
    बरसों-बरस
    तपी
    माटी पर
    और मरुत्‌ में
    भीगा-भीगा
    गीलापन है
    सजी सलोनी
    मही हुमड़कर
    छाया के आँचल
    ढकती है
    और
    हरित-हृद्‌
    पलकों की पाँखों पर
    प्रतिपल
    कण-कण का विस्तार.....
    विविध-विध
    माप रहा है।

    गंध गिलहरी
    गलबहियाँ
    गुल्मों को डाले।"

    आप को पढ़ना सचमुच एक अद्भुत अनुभव होता है ... कहाँ कहाँ से चुन चुन कर उद्धरण लातीं हैं आप ... और उस पर लालित्य ऐसा कि शब्द शब्द से रस टपके ... कहीं ज्ञान की बातें हैं, तो कहीं चुहल भी ... पाकशास्त्र में पटु गृहस्थिन सी ऐसा सुस्वादु थाल सजा के रख देती हैं कि पाठक कितना भी शुष्क-नीरस क्यों न हो, उंगलियाँ चाटे बिना नहीं उठ सकता !
    ईश्वर करे आपकी ये लेखनी हमारे जीवन में यूँ ही उजास भरती रहे !

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  5. आहा! आपकी पोस्ट्स हमेशा ही मजेदार होती है। मुए इस फेसबुक की बुरी आदत के चलते कितनी सुंदर पोस्ट्स पढ़ने से चूक गए, लेकिन अब नियमित पढ़ा करेंगे।
    बधाई, शुभकामनाएं और प्रणाम जिज्जी।

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