क़ौमी शायर चकबस्त

क़ौमी शायर चकबस्त
--- डॉ शुभ्रा शर्मा
भारत के इतिहास में १८५७ का साल ख़ास अहमियत रखता है. कवि के शब्दों में कहें तो - "गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत हमने पहचानी थी" और तभी आज़ादी के लिए जद्दो-जहद शुरू की थी. हम इसे 'आज़ादी की पहली लड़ाई' के नाम से जानते हैं, हालाँकि बहुत दिनों तक अँगरेज़ हुक्मरान इसे 'सिपाही विद्रोह' कहते रहे. उर्दू शायरों में दो ही इस घटना के चश्मदीद गवाह थे, एक - बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र और दूसरे - मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब. ज़फ़र तो अपना हाल ख़ुद बयान कर गये हैं - कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए, दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कूए यार में. अंग्रेजों ने उन्हें सिपाही विद्रोह का नायक मानते हुए देश-निकाला दे दिया और उन्हें ख़ाके-वतन भी नसीब न हुई. रह गये ग़ालिब, सो अंग्रेजों से वज़ीफ़ा पाने को दर-बदर ठोकरें खाते रहे. ज़ौक़, मोमिन और अमीर मीनाई ये दिन देखने को ज़िन्दा नहीं थे.
निज़ाम बदला, हिंदुस्तान की तक़दीर बदली, फिर भला शायरी इससे अछूती कैसे रह जाती? लिहाज़ा, ग़ज़ल के इन उस्ताद शायरों के बाद जो शायर आये, उन्होंने ख़ुमो-साग़र और गुलो-बुलबुल के बजाय क़ौमो-वतन के तराने सुनाये. इस दौर में सबसे पहले याद आते हैं - मौलवी मोहम्मद हुसैन आज़ाद (१८२९-१९१०) और मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली (१८४०-१९१६).
- बैठे बेफिक्र क्या हो हम-वतनो! उट्ठो अहले-वतन के दोस्त बनो.
इन्हीं दोनों ने पहली बार यह अहसास दिलाया कि शायरी में माशूक़ की ज़ुल्फ़ों का ही नहीं, देश की दुर्दशा का भी ज़िक्र किया जा सकता है. निगाहों के तीर से घायल होने वालों की ही नहीं, भूख से बिलबिलाते इंसानों की मजबूरी भी बयान की जा सकती है.
- ऐसे ही नंगे हुब्बे-वतन बदनसीब हैं, घर में मुसाफिरों से जो बदतर ग़रीब हैं.
अकबर इलाहाबादी (१८४६-१९२१) इन्हीं बातों को तंज़-ओ-मिज़ाह का जामा पहनाकर पेश करते हैं.
- नेशनल वक़अत के गुम होने का है अकबर को ग़म, ऑफिशल इज्ज़त का उसको कुछ मज़ा मिलता नहीं.
माहौल तैयार हो चुका था, अब इंतज़ार था ऐसी आवाज़ों का जो लोगों में नयी जान फूँक सकें, कौम को नये तेवर से आगे बढ़ने का मन्त्र दे सकें. यह काम किया - डॉ मोहम्मद इक़बाल (१८७५- १९३७) और पंडित बृजनारायण चकबस्त (१८८२-1926) ने.
जहाँ एक तरफ इक़बाल ने हमें अपने ऊपर, अपने इतिहास और भूगोल पर, अपनी गंगा-जमनी तहज़ीब पर नाज़ करना सिखाया-
- सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिताँ हमारा.
वहीँ चकबस्त ने हमें वतन से प्यार करना सिखाया. अपनी नज़्म "ख़ाके-हिंद" में वे कहते हैं-
अगली सी ताज़गी है फूलों में और फलों में, करते हैं रक्स अब तक ताऊस जंगलों में
अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में, पस्ती सी आ गयी है पर दिल के हौसलों में
गुल शम-ए-अंजुमन है गो अंजुमन वही है, हुब्बे-वतन नहीं है ख़ाके-वतन वही है.
बरसों से हो रहा है बरहम समां हमारा, दुनिया से मिट रहा है नामो-निशाँ हमारा
कुछ कम नहीं अजल से ख्वाबे-गराँ हमारा, इक लाशे-बेकफ़न है हिन्दोस्ताँ हमारा
इल्मो-कमालो-ईमां बर्बाद हो रहे हैं, ऐशो-तरब के बन्दे ग़फ़लत में सो रहे हैं.
ऐ सूरे हुब्बे-क़ौमी! इस ख़्वाब से जगा दे, भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे
मुर्दा तबीयतों की अफ़सुर्दगी मिटा दे, उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे
हुब्बे-वतन समाये आँखों में नूर होकर, सर में ख़ुमार होकर, दिल में सुरूर होकर.
जब वतन की बात चलती है तो वे हालात की सच्ची तस्वीर पेश करने से ज़रा नहीं हिचकते. इसकी मिसाल है उनकी नज़्म - "फ़रियादे कौम".
लुटे हैं यूँ कि किसी की गिरह में दाम नहीं, नसीब रात को पड़ रहने का मुक़ाम नहीं
यतीम बच्चों के खाने का इंतज़ाम नहीं, जो सुबह ख़ैर से गुज़री उम्मीदे-शाम नहीं
अगर जिये भी तो कपड़ा नहीं बदन के लिए, मरे तो लाश पड़ी रह गयी कफ़न के लिए.
नसीब चैन नहीं भूख प्यास के मारे, हैं किस अज़ाब में हिंदोस्तान के प्यारे.
तुम्हें तो ऐश के सामान जमा हैं सारे, यहाँ बदन से रवां हैं लहू के फव्वारे
जो चुप रहें तो हवा कौम की बिगडती है, जो सर उठायें तो कोड़ों की मार पड़ती है.
अगर दिलों में नहीं अब भी जोश ग़ैरत का, तो पढ़ दो फ़ातहा क़ौमी वक़ारो-इज्ज़त का
वफ़ा को फूँक दो मातम करो मुहब्बत का, जनाज़ा लेके चलो क़ौमी दीनो-मिल्लत का.
निशाँ मिटा दो उमंगों का और इरादों का, लहू में ग़र्क़ सफीना करो मुरादों का.
भंवर में कौम का बेड़ा है हिन्दियो! हुशियार, अँधेरी रात है काली घटा है और मझधार
अगर पड़े रहे ग़फ़लत की नींद में सरशार, तो ज़ेरे-मौजे-फ़ना होगा आबरू का मज़ार
मिटेगी कौम ये बेड़ा तमाम डूबेगा, जहाँ में भीष्मो-अर्जुन का नाम डूबेगा.
चकबस्त शायद उर्दू के ऐसे इकलौते शायर हैं, जिन्होंने अपना कोई तख़ल्लुस या उपनाम नहीं रखा था. चकबस्त उनका पारिवारिक नाम था और उन्हें इसी नाम से जाना जाता है.पेशे से वकील थे और जैसा कि अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने अपनी किताब शेर-ओ-शायरी में लिखा है -" वे वास्तव में देश के वकील थे". उन्होंने मनुष्यता को अपनी जाति और देश-सेवा को अपना धर्म बनाया और ताउम्र इसी जाति-धर्म का पालन करते रहे.
अगर दर्दे-मुहब्बत से न इन्सां आशना होता, न मरने का सितम होता न जीने का मज़ा होता.
हज़ारों जान देते हैं बुतों की बेवफ़ाई पर, अगर इनमें से कोई बावफ़ा होता तो क्या होता ?
हविस जीने की है यूँ उम्र के बेकार कटने पर, जो हमसे ज़िन्दगी का हक़ अदा होता तो क्या होता?
ये मरना बेहिजाबाना निगाहें क़हर करती हैं, मगर हुस्ने-हया-परवर का आलम दूसरा होता.
ज़बाँ के ज़ोर पर हंगामा-आराई से क्या हासिल, वतन में एक दिल होता मगर दर्द-आशना होता.
आगरा से 'शायर' रिसाला निकालने वाले प्रोफ़ेसर एजाज़ सिद्दीक़ी लिखते हैं - "चकबस्त की नज़्मों में ख़ाली जोश और नुमाइश ही नहीं, बल्कि इन्क़लाब की दिलचस्प अहमियत और हिम्मत-अफ़ज़ाई भी मौजूद है. वे अपने वतन की तारीफ़ भी करते हैं और फिर ग़ैरत दिलाने के लिए अपनी बेकसी और वतन की बर्बादी का भी ज़िक्र करते हैं. .....उन्होंने न सिर्फ उस तहरीक से दिलचस्पी ली, बल्कि उस तहरीक से दिलचस्पी लेने वालों से भी एक ख़ास क़िस्म की अक़ीदत का इज़हार वक़्तन- फ़वक़्तन ख़ुलूस और जोश के साथ करते रहे. उनके कहे हुए मर्सिये इस अम्र की शहादत के लिए काफी हैं. जब कभी किसी ख़ास रहनुमा का इंतक़ाल होता था तो उसका मातम निहायत जोश के साथ अपनी शायरी में करते थे. इस सिलसिले में चकबस्त आप अपनी ही मिसाल हैं"
बाग़बाँ ने ये अनोखा सितम ईजाद किया, आशियां फूँक के पानी को बहुत याद किया.
दरे-ज़िन्दां पे लिखा है किसी दीवाने ने, वही आज़ाद है जिसने इसे आबाद किया.
जिस पर एहबाब बहुत रोये फ़क़त इतना था, घर को वीरान किया, क़ब्र को आबाद किया.
इसको नाक़द्रिये आलम का सिला कहते हैं, मर चुके हम तो ज़माने ने बहुत याद किया.
चकबस्त भले ही इसे "नाक़द्रिये आलम का सिला" कहते हों लेकिन १२ जनवरी १९२६ को, महज़ ४४ साल की उम्र में जब उनका इंतक़ाल हुआ, तब लखनऊ की अदालतें बंद कर दी गयीं, शोक-सभाएं हुईं, जाने-माने शायरों ने नौहे पढ़े, तारीख़ें कहीं. ज़माना आज तक उन्हें याद करता है, और उन्हीं का यह शेर पढ़कर याद करता है
- चिराग़ कौम का रौशन है अर्श पर दिल के, इसे हवा के फ़रिश्ते बुझा नहीं सकते.

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