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Showing posts from July, 2016

पापा की पुत्रिका

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पापा ने ही बंकिम बाबू के वन्दे मातरम् से लेकर मुझे शुभ्रा नाम दिया था। पुकारने का नाम मनु वैसे तो नानी ने रखा था, मगर उसका शुद्धतम रूप में उपयोग केवल पापा करते थे। बाकी लोग उसे अपनी-अपनी मुख-सुविधा के अनुसार बदल लेते थे। जैसेकि नानी मुझे हमेशा मानू बुलाती रहीं। नानाजी ने मनुआ बुलाना शुरु किया तो बहुत सारे लोग उन्हीं का अनुकरण करने लगे। अम्मा ने ज़रा हटकर मनिया कर दिया। कवयित्री हैं, सो बिटिया के लिये लोरी लिखी - सोये सोये रे मेरी मनिया, मेरी मनिया को आये निंदिया। कुछ बड़ी हुई तो देखा कि मेरी पर-ननिहाल में, यानीकि मेरी अम्मा की ननिहाल में मुझसे छोटे बच्चों की पूरी क्रिकेट टीम खड़ी हो चुकी थी। रिश्ते मे तो वो सब मेरे मामा और मासी थे लेकिन डील-डौल से मैं उन सब पर भारी पड़ती थी, इसलिये उन सब ने मुझे मन्नू जिज्जी बुलाने में ही अपनी ख़ैरियत समझी। गेंदतड़ी, आइस बाइस, या ऊँच नीच खेलते हुए ये नाम ज़रा लंबा पड़ता था, इसलिये इसका शार्ट वर्ज़न मनुज्जी ज़्यादा प्रचलित हो गया। अब उन सबके पति अथवा पत्नियों और बच्चों को मिलाकर लगभग साठ लोग इसी प्रचलित नाम का इस्तेमाल करते हैं। मज़े की बात तब हुई ज

झूला पड़ा कदंब की डारी

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मीना कुमारी की एक फ़िल्म आई थी - बहू बेगम, जिसमें वो और उनकी सहेलियाँ झमाझम बरसते पानी में झूला झूल रही थीं। पड़ गए झूले सावन रुत आई रे। /> संयोग की बात है कि मैंने यह फ़िल्म ऐसी उम्र में देखी थी, जब सहेलियों के साथ सैर-सपाटा, मौज-मस्ती कर पाना जीवन की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा और सबसे बड़ी उपलब्धि लगती थी। मत भूलिये यह साठ का दशक था, जब छोटे शहरों की लड़कियों पर दुनिया भर की पाबंदियाँ होती थीं। मेरा परिवार तो काफ़ी आधुनिक चिंतन वाला परिवार था, फिर भी घर के ठीक सामने रहने वाली वीणा के घर नोट्स लेने जाना हो तो नौकर साथ जाता था और साथ लेकर ही लौटता था। ऐसे में सहेलियों के साथ झूला झूलने का अवसर सिर्फ स्कूल के अंदर ही मिल पाता था और वहाँ दाइयाँ हर वक़्त डराती रहती थीं - ऐ! ऐ! चला लोगन, भीजा जिन। नाहिं, अबहीं जाइके बाई जी (प्रिंसिपल लीला शर्मा जी) के बताईल। लीला दी ने शायद ही कभी किसी को डाँटा हो, फिर भी उनका ख़ौफ़ ऐसा था कि हम फ़ौरन झूला छोड़कर ग़ायब हो जाते थे। ऐसे में बार-बार ध्यान आता था कि गोकुल-बृंदावन में कैसा आनंद रहा होगा जहाँ गोपी-ग्वाल, राधा-कृष्ण मिलकर झूलते थे और कोई उन्ह

अविस्मरणीय रेलयात्रा

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भगवान बुद्ध ने अच्छा किया था कि अपरिग्रह को सत्य, अहिंसा, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के बराबर महत्त्व दिया था। अपने को कोई नुकसान न हो रहा हो तो हम हिंदुस्तानी अमूमन सच बोल लेते हैं, अहिंसा का पालन कर लेते हैं, चोरी से भी बच लेते हैं और देर-सबेर ब्रह्मचारी भी बन जाते हैं। एक ही काम है जिसमें हम कच्चे हैं, और वो है अपरिग्रह। किसी भी घर में जाकर देखिये - पुरानी डायरियों से लेकर गाड़ी के पुराने टायर तक तमाम चीज़ें कहीं कोने-अँतरे में पड़ी मिल जायेंगी। यह हमारा राष्ट्रीय अवगुण है कि हम कभी कोई चीज़ फेंकते नहीं, इस उम्मीद में सहेजकर रख लेते हैं कि कभी न कभी काम आ सकती है। किसी और को क्या दोष दूँ, मैं ख़ुद भी इस मर्ज़ की शिकार हूँ। टूटी मालायें, बटन, साड़ियों के फ़ॉल, पिछले साल की राखियाँ, शादियों के कार्ड से उखाड़े गणेश, और यहाँ तक कि पिछली दीवाली के जले हुए दिये तक मेरे संग्रह में मिल जायेंगे। हाँ, यह ज़रूर है कि मैं जल्द ही उनके इस्तेमाल के तरीक़े ढूँढ लेती हूँ। पहचान रहे हैं? दीवाली पर इन मटकियों में दीप जले थे पर अब ये पौधों के गमले बन गये हैं। कुछ इसी तरह का इस्तेमाल मैंने सुराही के स्टैंड का भी कि

जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे

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आषाढ़ महीने में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथ मंदिर से निकलते हैं, भाई-बहन के साथ रथ पर सवार होते हैं और वर्षा ऋतु का आनंद लेने निकल पड़ते हैं। उनकी इस पिकनिक में उनकी पत्नी साथ नहीं होतीं लेकिन लाखों की संख्या में उनके अनुयायी साथ होते हैं। अनुयायी का शाब्दिक अर्थ ही है - साथ चलने वाला - उर्दू में जिसे कहते हैं हमसफ़र। कैसी अजीब बात है? घूमने निकले हैं लेकिन जीवन-साथी को साथ लेकर नहीं चल रहे। साथ में लिया है बड़े भाई को, लाड़ली बहन को और हज़ारों-हज़ार अनुयायियों को। बचपन से ही ऐसे थे। घर में दूध-दही के मटके भरे रहते थे लेकिन उन्हें तो दूसरों के घर से चुराकर खाना भाता था। वो भी अकेले नहीं, सब सखाओं के साथ। माखन चुराने, खाने और लुटाने की ऐसी बान पड़ी कि गोपियों ने माखनचोर नाम ही रख दिया। पकडे जाते तो भोली सूरत बनाकर कह देते- मैं बालक बँहियन को छोटो छींको केहि बिधि पायो ग्वाल-बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुख लपटायो। मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो। ​ अब इस तरह की शरारतें और बहानेबाज़ी कोई भला आदमी अपने बाल-बच्चों के सामने नहीं कर सकता न, इसलिए उन्हें साथ लेकर नहीं आये हैं। भा