नेहरू जी नहीं रहे
बात उन दिनों की है जब गोवा पुर्तगाली शासन से नया-नया मुक्त हुआ था, हालाँकि हवा तब भी साढ़े चार सौ वर्षों की दासता से भारी महसूस होती थी। लोग तब भी देश के अन्य हिस्सों को इंडिया कहते थे, बाज़ारों में विदेशीसामान भरा पड़ा था और समुद्र तट पर १२-१४ वर्ष के बच्चे भी बियर या वाइन का लुत्फ़ लेते देखे जा सकते थे। आकाशवाणी पर भी एमिसोरा डि गोवा का असर बाक़ी था। दोपहर में लंच के बाद लगभग दो घंटे सिएस्टा केलिए नियत थे। केंद्र निदेशक का कमरा बहुत बड़ा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ था। कमरे की एक पूरी दीवार शीशे की थी, जहाँ से बगीचे का कोना नज़र आता था। कमरे में एक तरफ आरामदेह सोफा- कम- बेड था, जहाँपुर्तगाली केंद्र निदेशक सिएस्टा का आनंद लेते थे। नए केंद्र निदेशक मेजर अमीन फौजी व्यक्ति थे, जिन्हें आराम के नाम से चिढ़ थी। वैसे भी वह नेहरूजी के 'आराम हराम है' के नारे वाला दौर था। मेरे पिताजी, कृष्ण चन्द्र शर्मा'भिक्खु' सहायक केंद्र निदेशक थे।दोनों अधिकारियों की पूरी कोशिश रहती कि कम से कम आकाशवाणी से सिएस्टा का चलन ख़त्म हो जाये। लेकिन पुरानी आदत जाते-जाते ही जाती है।
गोवा में तब आकाशवाणी के कर्मचारियों को सरकारी आवास उपलब्ध नहीं थे।दोनों बड़े अधिकारी होटल में कमरा किराये पर लेकर रहते थे। साल में एक बार, गर्मी की छुट्टियों में माँ, डॉ० शकुन्तला शर्मा मुझे लेकर गोवाजाती थीं। उसी एक कमरे में हम दोनों भी समा जाते थे। कमरे में समुद्र की ओर खुलने वाली बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं। उन्हीं में से एक के आगे माँ अपना चूल्हा-चौका जमा लेती थीं। घनघोर मांसाहारी प्रदेश में शाकाहारियों केलिए न तो कोई होटल था. न पंजाबी ढाबा या मारवाड़ी बासा। इसलिए माँ सोचती थीं - डेढ़-दो महीने के लिए ही सही, कम से कम पिताजी को घर का खाना खिला दें। पिताजी दोपहर में खाना खाने आ जाते थे। उन्हें ऑफ़िस से होटल लेकर आने वाला ड्राइवर सिल्वेस्ता मेरा अच्छा दोस्त बन गया था। छुट्टी के बाद कभी-कभी मुझे और मेरे दोस्तों को अपनी मर्सिडीज़ में घुमाने ले जाता था और आइसक्रीम भी खिलाता था।
एक दिन पिताजी खाना खाने बैठे ही थे कि फ़ोन की घंटी बजी। मैंने दौड़कर फ़ोन उठाया।
उधर से आवाज़ आई - "मिस्टर शर्मा से बात कराइये, हम दिल्ली से बोल रहे हैं।"
मैंने कह दिया कि वे खाना खा रहे हैं, लेकिन उधर से आदेश हुआ -" कोई बात नहीं, उन्हें फ़ोन दीजिये।"
मैं ज़रा लाडली बेटी थी, सो अड़ गयी कि थोड़ी देर बाद कर लीजियेगा। लेकिन तब तक दिल्ली का नाम सुनकर पिताजी उठ कर आ गए। दस साल की उम्र के गुस्से से बिफरी मैं माँ से शिकायत करने पहुँची, तभी पिताजी कोकहते सुना - "हाय, ये क्या हो गया।"
फ़ोन रखकर पिताजी वहीँ दीवार से लिपटकर बुरी तरह रोने लगे। मैंने इससे पहले कभी उन्हें रोते नहीं देखा था। मैं बहुत डर गयी और माँ के पास सिमट गयी।
माँ ने पूछा - "क्या हुआ?"
पिताजी ने उसी तरह बिलखते हुए कहा - "नेहरुजी नहीं रहे।"
इस पर माँ भी रोने लगीं।
मैं बारी-बारी से दोनों को देखती अवाक् खड़ी रही। समझ में नहीं आ रहा था क्या कहूँ, क्या करूँ? जब कुछ नहीं समझ में आया तो उनसे लिपट कर खुद भी रोने लगी।
नेहरु जी के निधन के बाद सात दिन के राजकीय शोक की घोषणा कर दी गयी।आकाशवाणी के सभी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम बंद, गीत-संगीत का प्रसारण बंद, केवल भक्ति-संगीत और वह भी बिना वाद्य-यंत्रों के। किसी औरकेंद्र पर शायद इतनी कठिनाई नहीं हुई होगी। लेकिन यहाँ तो स्थिति ही अलग थी। एमिसोरा डि गोवा के आर्काइव्स में भला ऐसा भक्ति संगीत कहाँ से मिलता? मगर प्रसारण तो होना ही था और ठीक समय पर होना था। आजकी तरह किसी और स्टेशन को पैच करने की सुविधा मौजूद नहीं थी। अब क्या हो? चारों तरफ गाड़ियाँ दौड़ायी गयीं। जहाँ कहीं भी कोई हिंदी- संस्कृत के विद्वान् थे, सादर आमंत्रित किये गए। गायकों- संगीतकारों को स्टूडियो मेंबुलाकर रेकॉर्डिंग शुरू की गयी।मैंने वह दृश्य अपनी आँखों से देखा है कि प्रोड्यूसर से लेकर केंद्र निदेशक तक सभी स्पूल-टेप लेकर इधर-उधर दौड़े चले जा रहे हैं। धीरे-धीरे एमिसोरा पर आकाशवाणी का रंग छाने लगा। लेकिन अभी तो सात दिनों तक प्रसारण जारी रखना था।
एक दिन केंद्र निदेशक मेजर अमीन अचानक हमारे कमरे में आ गए। पिताजी तब तक ऑफ़िस से नहीं लौटे थे। उन्होंने कहा - आप गीता पाठ कर सकती हैं?दरअसल माँ ने उन्हें किसी प्रसंग में बताया था कि उन्होंने किसी के निधन पर पूरी रात बैठकर गीता पाठ किया था। उन्होंने माँ से कहा - मुझे आपसे गीता की रेकॉर्डिंग करानी है। आप तैयार रहिएगा, मैं गाड़ी भेज दूंगा। शर्मा जी से कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है। यह हमारा सीक्रेट रहेगा।
माँ उनके लिए जलपान की व्यवस्था करने लगीं तब तक वे मुझसे बात करने लगे।
उन्होंने मुझसे पूछा - आप जानती हैं क्या हुआ है?
मैंने सुना-सुनाया वाक्य दोहरा दिया - नेहरू चाचा नहीं रहे।
उन्होंने कहा - आप उनसे मिली थीं?
यह मेरे छोटे से जीवन का हाई पॉइंट था। मैं कोई पाँच साल की थी, तब नेहरूजी मेरे स्कूल में आये थे। मैंने जिद करके अपने लिए सैनिकों जैसी वर्दी सिलवाई थी और वही पहनकर स्कूल गयी थी। नेहरुजी आये तो बहुत सारीयूनीफॉर्म-धारी बच्चियों के बीच मैं अकेली सैनिक लिबास में थी। सच पूछिए तो नेहरु चाचा के आगे खुद को किसी ब्रिगेडियर से कम नहीं समझ रही थी। वे जब पास आये तो मैंने जमकर सेल्यूट ठोंका। उन्होंने सैल्यूट का जवाब सैल्यूट से दिया और फिर हँसकर मुझे गोद में उठा लिया।
जिन नेहरू चाचा को रोज़ अख़बारों और डाक्यूमेंट्री फिल्मों में देखा करती थी उनकी गोद में चढ़ने के बाद मेरा क्या हुआ, इसका मुझे कोई होश नहीं है।लेकिन बाद में लोगों ने बताया कि उन्होंने कहा था - "हमें इस जैसी बहादुर बच्चियों की ज़रूरत है।"
मुझसे यह किस्सा सुनकर मेजर अमीन समझ गए कि रविवार की बाल सभा का भी इंतज़ाम हो गया। कोई भी कुशल एंकर मेरे साथ बातचीत कर इस घटना को एक घंटे तक खींच सकता था और नेहरु चाचा के प्रति बच्चों केप्यार को भी रेखांकित कर सकता था।
अगले दिन मुस्कुराता हुआ सिल्वेस्ता हमें लेने आया। हम केंद्र निदेशक के कमरे में बिठाये गए। मेजर अमीन ने पिताजी को फ़ोन मिलकर कहा - "शर्माजी मेरे आर्टिस्ट आ गए हैं। आप ज़रा इनकी रेकॉर्डिंग की व्यवस्था देखलीजिये।"
कुछ ही देर में पिताजी - "मे आई कम इन सर" कहते हुए कमरे में दाखिल हुए और उनके आर्टिस्ट्स को देखकर दंग रह गए।
इसके बाद उन्होंने अम्मा के गीता-पाठ की और मेरी बाल-सभा की रिकॉर्डिंग करवाई। आकाशवाणी परिवार के सदस्य होने के नाते हमें उस दिन मात्र एक-एक रुपये की टोकन फीस मिली लेकिन हम उस दिन से बाक़ायदा आकाशवाणी के कलाकार बन गए।
गोवा में तब आकाशवाणी के कर्मचारियों को सरकारी आवास उपलब्ध नहीं थे।दोनों बड़े अधिकारी होटल में कमरा किराये पर लेकर रहते थे। साल में एक बार, गर्मी की छुट्टियों में माँ, डॉ० शकुन्तला शर्मा मुझे लेकर गोवाजाती थीं। उसी एक कमरे में हम दोनों भी समा जाते थे। कमरे में समुद्र की ओर खुलने वाली बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं। उन्हीं में से एक के आगे माँ अपना चूल्हा-चौका जमा लेती थीं। घनघोर मांसाहारी प्रदेश में शाकाहारियों केलिए न तो कोई होटल था. न पंजाबी ढाबा या मारवाड़ी बासा। इसलिए माँ सोचती थीं - डेढ़-दो महीने के लिए ही सही, कम से कम पिताजी को घर का खाना खिला दें। पिताजी दोपहर में खाना खाने आ जाते थे। उन्हें ऑफ़िस से होटल लेकर आने वाला ड्राइवर सिल्वेस्ता मेरा अच्छा दोस्त बन गया था। छुट्टी के बाद कभी-कभी मुझे और मेरे दोस्तों को अपनी मर्सिडीज़ में घुमाने ले जाता था और आइसक्रीम भी खिलाता था।
एक दिन पिताजी खाना खाने बैठे ही थे कि फ़ोन की घंटी बजी। मैंने दौड़कर फ़ोन उठाया।
उधर से आवाज़ आई - "मिस्टर शर्मा से बात कराइये, हम दिल्ली से बोल रहे हैं।"
मैंने कह दिया कि वे खाना खा रहे हैं, लेकिन उधर से आदेश हुआ -" कोई बात नहीं, उन्हें फ़ोन दीजिये।"
मैं ज़रा लाडली बेटी थी, सो अड़ गयी कि थोड़ी देर बाद कर लीजियेगा। लेकिन तब तक दिल्ली का नाम सुनकर पिताजी उठ कर आ गए। दस साल की उम्र के गुस्से से बिफरी मैं माँ से शिकायत करने पहुँची, तभी पिताजी कोकहते सुना - "हाय, ये क्या हो गया।"
फ़ोन रखकर पिताजी वहीँ दीवार से लिपटकर बुरी तरह रोने लगे। मैंने इससे पहले कभी उन्हें रोते नहीं देखा था। मैं बहुत डर गयी और माँ के पास सिमट गयी।
माँ ने पूछा - "क्या हुआ?"
पिताजी ने उसी तरह बिलखते हुए कहा - "नेहरुजी नहीं रहे।"
इस पर माँ भी रोने लगीं।
मैं बारी-बारी से दोनों को देखती अवाक् खड़ी रही। समझ में नहीं आ रहा था क्या कहूँ, क्या करूँ? जब कुछ नहीं समझ में आया तो उनसे लिपट कर खुद भी रोने लगी।
नेहरु जी के निधन के बाद सात दिन के राजकीय शोक की घोषणा कर दी गयी।आकाशवाणी के सभी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम बंद, गीत-संगीत का प्रसारण बंद, केवल भक्ति-संगीत और वह भी बिना वाद्य-यंत्रों के। किसी औरकेंद्र पर शायद इतनी कठिनाई नहीं हुई होगी। लेकिन यहाँ तो स्थिति ही अलग थी। एमिसोरा डि गोवा के आर्काइव्स में भला ऐसा भक्ति संगीत कहाँ से मिलता? मगर प्रसारण तो होना ही था और ठीक समय पर होना था। आजकी तरह किसी और स्टेशन को पैच करने की सुविधा मौजूद नहीं थी। अब क्या हो? चारों तरफ गाड़ियाँ दौड़ायी गयीं। जहाँ कहीं भी कोई हिंदी- संस्कृत के विद्वान् थे, सादर आमंत्रित किये गए। गायकों- संगीतकारों को स्टूडियो मेंबुलाकर रेकॉर्डिंग शुरू की गयी।मैंने वह दृश्य अपनी आँखों से देखा है कि प्रोड्यूसर से लेकर केंद्र निदेशक तक सभी स्पूल-टेप लेकर इधर-उधर दौड़े चले जा रहे हैं। धीरे-धीरे एमिसोरा पर आकाशवाणी का रंग छाने लगा। लेकिन अभी तो सात दिनों तक प्रसारण जारी रखना था।
एक दिन केंद्र निदेशक मेजर अमीन अचानक हमारे कमरे में आ गए। पिताजी तब तक ऑफ़िस से नहीं लौटे थे। उन्होंने कहा - आप गीता पाठ कर सकती हैं?दरअसल माँ ने उन्हें किसी प्रसंग में बताया था कि उन्होंने किसी के निधन पर पूरी रात बैठकर गीता पाठ किया था। उन्होंने माँ से कहा - मुझे आपसे गीता की रेकॉर्डिंग करानी है। आप तैयार रहिएगा, मैं गाड़ी भेज दूंगा। शर्मा जी से कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है। यह हमारा सीक्रेट रहेगा।
माँ उनके लिए जलपान की व्यवस्था करने लगीं तब तक वे मुझसे बात करने लगे।
उन्होंने मुझसे पूछा - आप जानती हैं क्या हुआ है?
मैंने सुना-सुनाया वाक्य दोहरा दिया - नेहरू चाचा नहीं रहे।
उन्होंने कहा - आप उनसे मिली थीं?
यह मेरे छोटे से जीवन का हाई पॉइंट था। मैं कोई पाँच साल की थी, तब नेहरूजी मेरे स्कूल में आये थे। मैंने जिद करके अपने लिए सैनिकों जैसी वर्दी सिलवाई थी और वही पहनकर स्कूल गयी थी। नेहरुजी आये तो बहुत सारीयूनीफॉर्म-धारी बच्चियों के बीच मैं अकेली सैनिक लिबास में थी। सच पूछिए तो नेहरु चाचा के आगे खुद को किसी ब्रिगेडियर से कम नहीं समझ रही थी। वे जब पास आये तो मैंने जमकर सेल्यूट ठोंका। उन्होंने सैल्यूट का जवाब सैल्यूट से दिया और फिर हँसकर मुझे गोद में उठा लिया।
जिन नेहरू चाचा को रोज़ अख़बारों और डाक्यूमेंट्री फिल्मों में देखा करती थी उनकी गोद में चढ़ने के बाद मेरा क्या हुआ, इसका मुझे कोई होश नहीं है।लेकिन बाद में लोगों ने बताया कि उन्होंने कहा था - "हमें इस जैसी बहादुर बच्चियों की ज़रूरत है।"
मुझसे यह किस्सा सुनकर मेजर अमीन समझ गए कि रविवार की बाल सभा का भी इंतज़ाम हो गया। कोई भी कुशल एंकर मेरे साथ बातचीत कर इस घटना को एक घंटे तक खींच सकता था और नेहरु चाचा के प्रति बच्चों केप्यार को भी रेखांकित कर सकता था।
अगले दिन मुस्कुराता हुआ सिल्वेस्ता हमें लेने आया। हम केंद्र निदेशक के कमरे में बिठाये गए। मेजर अमीन ने पिताजी को फ़ोन मिलकर कहा - "शर्माजी मेरे आर्टिस्ट आ गए हैं। आप ज़रा इनकी रेकॉर्डिंग की व्यवस्था देखलीजिये।"
कुछ ही देर में पिताजी - "मे आई कम इन सर" कहते हुए कमरे में दाखिल हुए और उनके आर्टिस्ट्स को देखकर दंग रह गए।
इसके बाद उन्होंने अम्मा के गीता-पाठ की और मेरी बाल-सभा की रिकॉर्डिंग करवाई। आकाशवाणी परिवार के सदस्य होने के नाते हमें उस दिन मात्र एक-एक रुपये की टोकन फीस मिली लेकिन हम उस दिन से बाक़ायदा आकाशवाणी के कलाकार बन गए।
Sarita Snigdh Jyotsna says : नेहरू जी को शत शत नमन !
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण उन ऐतिहासिक क्षणों का ।
Suman Keshari says : ऐतिहासिक संस्मरण
ReplyDeleteUma Mishra says : Bahut acha laga padh ker 'Nehru ji nahi rahe' ...usme aapki bachpan ki yaadey
ReplyDeleteSarita Lakhotia says : Sashakt Yaadon ka Sundar Chitran !!
ReplyDeleteEmotional Historical Classical Proof of that period.......
Vah Shubhra Vah.......
Prem Mohan Lakhotia says : याद आता है कि उनके निधन का समाचार कार्यालय में सबसे पहले टेलीप्रिंटर पर मैंने पढ़ा था और प्राय: मूर्छित होकर विमूढ़ की भांति सबको अंगुली के इशारे से टेलीप्रिंटर पर खबर अपने आप पढ़ने का आग्रह कर रहा था| "युगों के बाद आता है जगत में एक अवतारी"!
ReplyDeleteSarita Lakhotia : Mai uss samay Gangtok me thi aur radio par news sunkar poora ghar ird gird ekatrit ho gaya aur shok me doob gaya......
ReplyDeleteSuresh Awasthi says : मै उस समय BA में पढता था। उनकीं मृत्यु के कुछ समय पहले या बाद रेडियो पर एक गाना सुनाई दिया टूट गई है माला मोती बिखर गए
ReplyDeleteबहुत बुरा हाल था।पिता जी कट्टर कांग्रेसी थे। पूरे घर में सन्नाटा छा गया था। बाद में वे खूब रोये भी।
लेकिन उसके बाद रेडियो सुनना अच्छा नहीं लगता था।
Pooja Bharadwaj : Jiji, bada hi jeevant varnan kiya aapne. Aap logo ne yah Sab itne Kareeb se Anubhav kiya hai aur hum aapke issi judav se Khud ko gaurvanvit mahsoos Kar rahe hein.
ReplyDeleteMujhe yaad hai ye qissa apne hamein zabani bhi sunaya hai ek bar....
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ReplyDeleteआप कितना सुंदर लिखती हैं....मानो सब कुछ आंखो के सामने घटित हुआ हो। यूं ही अपने संस्मरण साझा करती रहिये।
ReplyDeleteMithai Lal :
ReplyDeleteयह लेख पढ़कर मन भर आया मैम...हमारा भी शत शत नमन ऐसे महापुरुष को।
Archna Pant :
ReplyDeleteअहा ! कैसा तो जादुई व्यक्तित्व रहा होगा वो ... कैसा होगा उसका सम्मोहन कि सारे राष्ट्र के जन-जन में मन-मन में वो इस तरह छा गया .... कि उसका जाना हर किसी को यूँ विकल कर गया !
दीदी यूँ तो आपका हर संस्मरण ही दिल को छूने वाला होता है लेकिन ये सचमुच अद्भुत, ऐतिहासिक और संग्रहणीय है .... इसे पढ़ते समय पहली बार ये जाना कि भावभीनी स्मृतियाँ किस तरह एक साथ रो भी सकतीं हैं, मुस्कुरा भी सकती हैं !
वो सब जो हम अफसानों की तरह किताबों में पढ़ते रहे आपने देखा, भोगा, जिया है ...
बहुत ही समृद्ध और सुन्दर बचपन रहा है आपका ... और उतना ही चैतन्य होकर जिया भी है आपने उसे !
मेरे लिए तो इतना ही बहुत सौभाग्य है कि आप अपने अनुभवों को इस सरलता सरसता और उदारता से साझा करते समय मुझे भी याद कर लेती हैं ... इस स्नेह ... इस लाड़ के लिए आपकी ऋणी रहूँगी सदा सदा !
Anita Singh :
ReplyDeleteहम अतीत की जुगाली करते हुए जीवन जीते हैं... यादें ... हमारे वर्तमान का अटूट हिस्सा हैं... समृद्ध , सुनहरी यादों का खज़ाना है आपके पास... और किस्सागो भी कमाल हैं आप ... पढ़कर लगा जैसे कोई फ़िल्म देख ली ... बहुत सुंदर दी 😊😊
Sanjay Patel :
ReplyDeleteशुभ्रा दी का नाम किस्सों वाली जिज्जी रख देना चाहिए।
Sat Prakash Goyal :
ReplyDeleteरोचक संस्मरण!