तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये
याद है दोस्तो! स्कूल में जब अनुप्रास, श्लेष, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकार पढ़ाये जाते थे? न सिर्फ इनकी परिभाषायें, बल्कि सबके उदाहरण भी याद करने पड़ते थे। आज अचानक उन्हीं दिनों का याद किया यह पद बार-बार कानों में मंजीरे सा बजने लगा।
"तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये"।
तरणि- तनुजा यानी सूर्य की पुत्री यमुना। पुराणों में यमुना को सूर्य की पुत्री बताया गया है और यम को उनका भाई। तो उसी सूर्य की पुत्री और यम की बहन यमुना के तट पर बहुत सारे ऊँचे घने तमाल के वृक्ष छाये हुए हैं मानो झुक-झुक कर जल का स्पर्श करने की चेष्टा कर रहे हों, या उस जल के दर्पण में अपनी शोभा निहार रहे हों, या यमुना के जल को अत्यन्त पावन जानकर उसे प्रणाम कर रहे हों।
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये
झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये।
किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज सोभा
कै प्रणवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के इन शब्दों में कुछ ऐसा आकर्षण था कि यमुना तट आँखों में तरंगित होने लगा। ऊँचे -ऊँचे तमाल वृक्षों के बीच से वो पगडण्डी भी दिखाई देने लगी जिस पर दिन भर के गोचारण से क्लांत गोपाल कृष्ण बस आने ही वाले हैं। बल्कि उनकी बाँसुरी की टेर तो सुनाई भी दे रही है। हरे-हरे बाँस की बाँसुरी, जिससे राधा ही नहीं सभी गोपियाँ डाह करती हैं --
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माल गरे पहिरौंगी
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भावतो तोहि कहा रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग भरौंगी
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
सखी राधा से कहती है - तुम चाहती हो कि मैं कृष्ण का स्वाँग भरूँ तो मैं तुम्हारा कहना मानकर पूरा भेष धरूँगी - सिर पर मोरपंख, गले में गुंजा माला, कटि में पीताम्बर पहन लूँगी। हाथ में लाठी लिए गायों के साथ-साथ फिरूँगी। बस एक ही काम मुझसे नहीं होगा - ये मुरलीधर श्रीकृष्ण के होठों से लगी मुरली मैं अपने होठों पर नहीं रखूँगी।
राधा-कृष्ण के दिव्य अलौकिक प्रेम का आधार है यह यमुना-तट। यह वंशी-वट, जहाँ शरद पूर्णिमा की रात महारास का आयोजन हुआ था। यह कदम्ब, जिस पर झूला पड़ा था और राधा प्यारी और कृष्ण मुरारी बारी-बारी झूले थे। और यह तमाल, जो उनकी लीला-कथा का प्रथम साक्षी बना था।
जयदेव ने गीत गोविन्द के पहले ही श्लोक में लिखा है कि बादलों के उमड़ने-घुमड़ने से आकाश और सघन तमालों से भूमि पहले ही श्यामल हो रही थी कि रात घिर आयी। अब नन्द जी को चिंता है कि ऐसे निविड़ निशीथ में कहीं बालक डरकर घर न भूल जाये इसलिए वे राधा से कहते हैं कि इसे घर पहुँचा दो।
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमैर्
नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिदं राधे गृहं प्रापय।।
श्याम तमाल का दूसरा गुण है उसके फूलों की मादक गंध। जयदेव कहते हैं - ऐसा लगता है जैसे इसने कस्तूरी की गंध को जबरन अपने वश में कर लिया है।
मृगमद-सौरभ-रभस-वशंवद-नवदल-माल-तमाले
यही गुण उसे कृष्ण के और पास ले जाता है। दोनों एक जैसे काले और जबरन मन मोह लेने वाले।
तभी तो चैतन्य महाप्रभु को तमाल में घनश्याम की प्रतीति होती है और वे तमाल तले समाधिस्थ हो जाते हैं।
लेकिन विडम्बना देखिये हम तमाल को भूल गये हैं। तरणि तनूजा तट के तमाल तरु आपको दिखाने के लिये जब मैंने गूगल महाराज और विकिपीडिया महारानी का सहारा लिया तो उन्होंने मुझे निहायत उलझे और घुमावदार रास्तों पर भटका दिया। कुछ-एक अंग्रेज़ी और वनस्पति-विज्ञानी नाम बताये। तमाल को कभी जंगली बादाम तो कभी तेज-पत्ता बताया।
चित्र ढूँढ़ने चली तो आम, कटहल, जामुन और तेज-पत्ता के चित्र मिले, तमाल नहीं मिला। कम से कम ऐसा कोई चित्र नहीं मिला जिसे आपके सामने रखकर कह सकती - ये लीजिये, यह है तमाल।
जितना समय इस भूलभुलैया में भटकते हुए गँवाया, अगर उतनी देर पैदल चलती तो शर्तिया वृंदावन पहुँच जाती और खुद तमाल का चित्र खींच लाती। आगरा के उस बँगले तक भी पहुँच सकती थी जहाँ वर्षों पूर्व पं० विद्यानिवास मिश्र जी रहते थे और जहाँ किसी ने उन्हें तमाल से परिचित कराया था।
"तमाल के झरोखे से" शीर्षक लेख में वे कहते हैं - इसे पहचानते ही लगा कि जाने कब से इसे पहचानता हूँ। काली कालिंदी को इसी ने अपनी घनी काली छाया से और काला भँवर बना दिया। इसी ने गोरी राधा के उज्ज्वल-नील प्यार की छाँह और सघन, और आर्द्र कर दी। इसको मैं हर वसंत में झरते और झीने-झीने फूलों से भरते देखता हूँ। हर वर्षा में इसे सघन पत्र-जाल का छत्र बना देखता हूँ। इसकी छाँह में जो रसवर्षा होती है वह बाहर की रसवर्षा से कहीं अधिक ज़ोरदार होती है। यह तमाल दोनों रसवर्षाओं से भीग-भीगकर सिहरता रहता है।"
तमाल की तरह जिसने इस रस वर्षा में भीगना सीख लिया उसे ब्रह्म को पाने के लिये इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। उसका आराध्य उसे यमुना तट पर सहज ही मिल जाता है। यहीं वृंदावन में, तमाल तले, माधवी कुंज में मानिनी राधा की मनुहार करते हुए --
ब्रह्म मैं ढूँढ्यो पुरानन मानन बेद रिचा सुनि चौगुने चायन
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कितहुँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन
ढूँढत ढूँढत बौरि भई रसखानि बतायो न लोग लुगायन
देख्यो दुर्यो वह कुंज कुटीर में बैठि पलोटतु राधिका पायन।
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श्याम तमाल के पौधे का चित्र भेजकर कृतार्थ कीजिए जी .
ReplyDelete--bholeshwarupmanyu@gmail.com
ATI Uttam
ReplyDeleteKake Krishna pike Krishna me kinda alankar hai
ReplyDeleteKake Krishna pike Krishna me kinda alankar hai
ReplyDeleteLake Krishna pike Krishna me kinda aka Kat hai
ReplyDeleteअद्भुत वर्णन
ReplyDeleteसच में मन को खींचकर यमुना किनारे ले गया..
अति सुन्दर रचना
ReplyDeleteआपका यह लेख पढ़कर पंडित विद्यानिवास मिश्र का निबंध 'तमाल के झरोखे से'औ'र रमणीय हो गया है.
ReplyDeleteAti sundar
DeleteAti sundar
Deleteमैंने तो ही सर्च किया था ये तरनितनूजातटतमाल यहाँपर आकर तो बहुत कुछ सीखने को मिला मुझे और तमाल की अद्भुतता को भी जाना धन्यबाद जी
ReplyDeleteतमाल का अर्थ है ताड़ का वृक्ष। जैसे भगवान को अक्सर तमाल वर्ण का कहा गया है।
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