Posts

Showing posts from 2016

सिनेमा के रंग, बनारसी मस्ती के संग - (भारती सिनेमा)

Image
आदरणीय काशीनाथ सिंह जी वाली अस्सी चौमुहानी से दुर्गाकुंड की ओर जाने वाली सड़क पर एक छोटा सा, नन्हा-मुन्ना सा, सिनेमा हॉल था - भारती। हमारे बचपन के दिनों (1962-1969) में भी वह बहुत पुराना हो चुका था और वहाँ सिर्फ़ रियायती दर पर पुरानी फ़िल्में दिखाई जाती थीं। संयोग से वो हॉल मेरे घर के बहुत पास था। सड़क से जायें तो आधा किलोमीटर और अगर साधुबेला आश्रम वाली पतली गली पकड़कर लपक जायें तो बस चार मिनट। भारती सिनेमा के इतने नज़दीक होने का प्रताप था कि हमने देव आनंद और राज कपूर की तमाम पुरानी फ़िल्में देख ली थीं। जाल, बाज़ी, जाली नोट, काला पानी, काला बाज़ार, आवारा, श्री 420, और ऐसी ही और कई। दिलीप कुमार की फ़िल्में देखने में हमारी दिलचस्पी कम थी मगर कभी-कभी माँ-मौसी का साथ देने के लिए देखनी पड़ती थीं। नानी हमारी, अशोक कुमार की बहुत ज़बरदस्त फ़ैन थीं इसलिये किस्मत और संग्राम भी देखीं। सबसे ज़्यादा ज़ुल्म तब हुआ, जब अशोक कुमार-सुचित्रा सेन की फ़िल्म ममता घूमती-घामती भारती में प्रदर्शित हुई और हमें एक सप्ताह में चार बार देखनी पड़ी। यही एक हॉल था, जिसमें हमें "भले घर की लड़कियों की तरह" पूरे परिवार क

सिनेमा के रंग, बनारसी मस्ती के संग

Image
बनारस में फ़िल्म देखने का अपना ही मज़ा था। बालकनी या बॉक्स में बैठने के बावजूद आम जनों की टिप्पणियाँ कानों में पड़ती रहतीं और फ़िल्म का मज़ा दुगना कर देतीं। जैसेकि एक बार मैं और मेरे तीन ममेरे भाई बनारस के ललिता सिनेमा में अनारकली देख रहे थे। अनारकली बीना राय को दीवार में चिनवाया जा रहा था। जैसे-जैसे अनारकली का चेहरा ईंटों से ढँकता जा रहा था, वैसे-वैसे उसकी करुण पुकार आँखों में नमी लाती जा रही थी -  "इसे मज़ार मत कहो, ये महल है प्यार का।" शाहज़ादा सलीम बने प्रदीप कुमार घोड़ा दौड़ाते चले आ रहे थे। तभी कोई सज्जन बोले - "जुल्फी नाहीं हिलत हौ, बे।" सचमुच, इतनी तेज़ गति से दौड़ रहे घोड़े पर बैठे सलीम की क़रीने से सजी घुँघराली लटों का एक भी बाल बाँका नहीं हो रहा था। इतने ग़मगीन माहौल में उनकी इस पैनी नज़र वाली टिप्पणी पर पूरा हॉल ठहाकों से गूँज उठा। घोड़े से गिरकर, कोहनियों के बल ज़मीन पर घिसटते हुए प्रदीप कुमार जब किसी तरह नयी बनी दीवार तक पहुँचे, बहुत देर हो चुकी थी। "अलविदा, अलविदा" का क्रेसेंडो शांत हो चुका था। मशालें लिए राज-मिस्त्री वापस लौट रहे थे। प्रदीप उ

पापा की पुत्रिका

Image
पापा ने ही बंकिम बाबू के वन्दे मातरम् से लेकर मुझे शुभ्रा नाम दिया था। पुकारने का नाम मनु वैसे तो नानी ने रखा था, मगर उसका शुद्धतम रूप में उपयोग केवल पापा करते थे। बाकी लोग उसे अपनी-अपनी मुख-सुविधा के अनुसार बदल लेते थे। जैसेकि नानी मुझे हमेशा मानू बुलाती रहीं। नानाजी ने मनुआ बुलाना शुरु किया तो बहुत सारे लोग उन्हीं का अनुकरण करने लगे। अम्मा ने ज़रा हटकर मनिया कर दिया। कवयित्री हैं, सो बिटिया के लिये लोरी लिखी - सोये सोये रे मेरी मनिया, मेरी मनिया को आये निंदिया। कुछ बड़ी हुई तो देखा कि मेरी पर-ननिहाल में, यानीकि मेरी अम्मा की ननिहाल में मुझसे छोटे बच्चों की पूरी क्रिकेट टीम खड़ी हो चुकी थी। रिश्ते मे तो वो सब मेरे मामा और मासी थे लेकिन डील-डौल से मैं उन सब पर भारी पड़ती थी, इसलिये उन सब ने मुझे मन्नू जिज्जी बुलाने में ही अपनी ख़ैरियत समझी। गेंदतड़ी, आइस बाइस, या ऊँच नीच खेलते हुए ये नाम ज़रा लंबा पड़ता था, इसलिये इसका शार्ट वर्ज़न मनुज्जी ज़्यादा प्रचलित हो गया। अब उन सबके पति अथवा पत्नियों और बच्चों को मिलाकर लगभग साठ लोग इसी प्रचलित नाम का इस्तेमाल करते हैं। मज़े की बात तब हुई ज

झूला पड़ा कदंब की डारी

Image
मीना कुमारी की एक फ़िल्म आई थी - बहू बेगम, जिसमें वो और उनकी सहेलियाँ झमाझम बरसते पानी में झूला झूल रही थीं। पड़ गए झूले सावन रुत आई रे। /> संयोग की बात है कि मैंने यह फ़िल्म ऐसी उम्र में देखी थी, जब सहेलियों के साथ सैर-सपाटा, मौज-मस्ती कर पाना जीवन की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा और सबसे बड़ी उपलब्धि लगती थी। मत भूलिये यह साठ का दशक था, जब छोटे शहरों की लड़कियों पर दुनिया भर की पाबंदियाँ होती थीं। मेरा परिवार तो काफ़ी आधुनिक चिंतन वाला परिवार था, फिर भी घर के ठीक सामने रहने वाली वीणा के घर नोट्स लेने जाना हो तो नौकर साथ जाता था और साथ लेकर ही लौटता था। ऐसे में सहेलियों के साथ झूला झूलने का अवसर सिर्फ स्कूल के अंदर ही मिल पाता था और वहाँ दाइयाँ हर वक़्त डराती रहती थीं - ऐ! ऐ! चला लोगन, भीजा जिन। नाहिं, अबहीं जाइके बाई जी (प्रिंसिपल लीला शर्मा जी) के बताईल। लीला दी ने शायद ही कभी किसी को डाँटा हो, फिर भी उनका ख़ौफ़ ऐसा था कि हम फ़ौरन झूला छोड़कर ग़ायब हो जाते थे। ऐसे में बार-बार ध्यान आता था कि गोकुल-बृंदावन में कैसा आनंद रहा होगा जहाँ गोपी-ग्वाल, राधा-कृष्ण मिलकर झूलते थे और कोई उन्ह

अविस्मरणीय रेलयात्रा

Image
भगवान बुद्ध ने अच्छा किया था कि अपरिग्रह को सत्य, अहिंसा, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के बराबर महत्त्व दिया था। अपने को कोई नुकसान न हो रहा हो तो हम हिंदुस्तानी अमूमन सच बोल लेते हैं, अहिंसा का पालन कर लेते हैं, चोरी से भी बच लेते हैं और देर-सबेर ब्रह्मचारी भी बन जाते हैं। एक ही काम है जिसमें हम कच्चे हैं, और वो है अपरिग्रह। किसी भी घर में जाकर देखिये - पुरानी डायरियों से लेकर गाड़ी के पुराने टायर तक तमाम चीज़ें कहीं कोने-अँतरे में पड़ी मिल जायेंगी। यह हमारा राष्ट्रीय अवगुण है कि हम कभी कोई चीज़ फेंकते नहीं, इस उम्मीद में सहेजकर रख लेते हैं कि कभी न कभी काम आ सकती है। किसी और को क्या दोष दूँ, मैं ख़ुद भी इस मर्ज़ की शिकार हूँ। टूटी मालायें, बटन, साड़ियों के फ़ॉल, पिछले साल की राखियाँ, शादियों के कार्ड से उखाड़े गणेश, और यहाँ तक कि पिछली दीवाली के जले हुए दिये तक मेरे संग्रह में मिल जायेंगे। हाँ, यह ज़रूर है कि मैं जल्द ही उनके इस्तेमाल के तरीक़े ढूँढ लेती हूँ। पहचान रहे हैं? दीवाली पर इन मटकियों में दीप जले थे पर अब ये पौधों के गमले बन गये हैं। कुछ इसी तरह का इस्तेमाल मैंने सुराही के स्टैंड का भी कि

जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे

Image
आषाढ़ महीने में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथ मंदिर से निकलते हैं, भाई-बहन के साथ रथ पर सवार होते हैं और वर्षा ऋतु का आनंद लेने निकल पड़ते हैं। उनकी इस पिकनिक में उनकी पत्नी साथ नहीं होतीं लेकिन लाखों की संख्या में उनके अनुयायी साथ होते हैं। अनुयायी का शाब्दिक अर्थ ही है - साथ चलने वाला - उर्दू में जिसे कहते हैं हमसफ़र। कैसी अजीब बात है? घूमने निकले हैं लेकिन जीवन-साथी को साथ लेकर नहीं चल रहे। साथ में लिया है बड़े भाई को, लाड़ली बहन को और हज़ारों-हज़ार अनुयायियों को। बचपन से ही ऐसे थे। घर में दूध-दही के मटके भरे रहते थे लेकिन उन्हें तो दूसरों के घर से चुराकर खाना भाता था। वो भी अकेले नहीं, सब सखाओं के साथ। माखन चुराने, खाने और लुटाने की ऐसी बान पड़ी कि गोपियों ने माखनचोर नाम ही रख दिया। पकडे जाते तो भोली सूरत बनाकर कह देते- मैं बालक बँहियन को छोटो छींको केहि बिधि पायो ग्वाल-बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुख लपटायो। मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो। ​ अब इस तरह की शरारतें और बहानेबाज़ी कोई भला आदमी अपने बाल-बच्चों के सामने नहीं कर सकता न, इसलिए उन्हें साथ लेकर नहीं आये हैं। भा

असाढ़ का पहला दिन

Image
कई बरसों बाद ऐसा सुयोग आया है कि जेठ महीने की पूर्णिमा का चाँद देखने छत पर निकली तो लू के थपेड़ों ने नहीं, शीतल मंद बयार ने शरीर का ताप मिटाया। वैसे कल रात चाँद पूरे से थोड़ा सा कम, यानी चौदहवीं का चाँद लग रहा था लेकिन पोथी-पत्रे के चक्करों से बचने के लिए मैंने कल पूर्णिमा और आज जेठ बदी प्रतिपदा मान ली है। तो कल की ठंडी हवाओं से उम्मीद बँध गयी थी कि शायद कालिदास के शब्दों को सही साबित करते हुए असाढ़ का पहला दिन घन-घटाओं से लैस होगा। आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।। कुबेर के शाप के कारण एक साल के लिए अपने घर से और अपनी प्रिया से दूर विरही यक्ष ने आषाढ़ के पहले दिन बादलों से लिपटी पहाड़ की चोटी को देखा, तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई हाथी खेल-खेल में अपने सर की टक्कर से उसे गिराने की कोशिश कर रहा हो। ​ मैं भी कोई ऐसा ही नज़ारा देख पाने की आस में सुबह से अपने आठवीं मंज़िल के घर के खिड़की-दरवाज़े खोले बैठी थी। लेकिन दस बजते-न-बजते सूरज की वक्र दृष्टि का प्रहार झेलना कठिन हो गया, तब निराश होकर खिड़कियाँ बंद कर दीं और परदे खींच कर नीम अँधेरा कर ल

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये

Image
याद है दोस्तो! स्कूल में जब अनुप्रास, श्लेष, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकार पढ़ाये जाते थे? न सिर्फ इनकी परिभाषायें, बल्कि सबके उदाहरण भी याद करने पड़ते थे। आज अचानक उन्हीं दिनों का याद किया यह पद बार-बार कानों में मंजीरे सा बजने लगा। "तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये"।  तरणि- तनुजा यानी सूर्य की पुत्री यमुना। पुराणों में यमुना को सूर्य की पुत्री बताया गया है और यम को उनका भाई। तो उसी सूर्य की पुत्री और यम की बहन यमुना के तट पर बहुत सारे ऊँचे घने तमाल के वृक्ष छाये हुए हैं मानो झुक-झुक कर जल का स्पर्श करने की चेष्टा कर रहे हों, या उस जल के दर्पण में अपनी शोभा निहार रहे हों, या यमुना के जल को अत्यन्त पावन जानकर उसे प्रणाम कर रहे हों। तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये। किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज सोभा कै प्रणवत जल जानि परम पावन फल लोभा।। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के इन शब्दों में कुछ ऐसा आकर्षण था कि यमुना तट आँखों में तरंगित होने लगा। ऊँचे -ऊँचे तमाल वृक्षों के बीच से वो पगडण्डी भी दिखाई देने लगी जिस पर दिन भर के गोचा

मेरी भी एक मुमताज़ थी...

Image
साठ और सत्तर के दशक में जवान हो रहे लड़कों के दिल, परदे पर मुमताज़ को देखते ही दुगनी-तिगनी रफ़्तार से धड़कने लगते थे। हमारे एक दोस्त बताते हैं कि उन दिनों बॉयज हॉस्टल के सभी कमरों में अलगनी पर टँगे कपड़ों के नीचे मुमताज़ की फ़ोटो या पोस्टर ज़रूर चिपके रहते थे। 'मेरे सनम' में जब वो गाती थीं - "ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अँधेरा न घबराइये,जहाँ तक महक है मेरे गेसुओं की चले आइये" - तो लड़के वाक़ई अपने आस-पास उन घुँघराली ज़ुल्फ़ों की ख़ुशबू महसूस करने लगते थे।   लड़कों के बीच मुमताज़ की लोकप्रियता का एक कारण और भी था कि ये लड़के दारा सिंह की फ़िल्में देखते हुए बड़े हुए थे। साठ के दशक में दारा सिंह की फ़िल्में धड़ाधड़ बन रही थीं और उनमें से अधिकांश की हीरोइन मुमताज़ थीं। ज़ाहिर है मुमताज़ लड़कों की पहली पसंद बन गयीं। इस दौरान उन्होंने कई और बी ग्रेड फिल्मों में भी काम किया लेकिन फिल्म 'प्यार किये जा' में महमूद ने उन्हें अपने वाह-वाह प्रोडक्शन की हीरोइन क्या चुना, वे हर निर्माता-निर्देशक की पहली पसंद बन गयीं। याद है, रिकॉर्ड प्लेयर पर उनका वो डांस - ओ मेरी मैना, तू मान ले मेरा कहन

अमलतास को कौन छिपाये

Image
मार्च-अप्रैल अगर टेसू और आम के महीने कहे जा सकते हैं तो मई-जून अमलतास और गुलमोहर के महीने हैं। मई आते न आते हरी निखरी पत्तियों वाला अमलतास पीले फूलों के गुच्छों से ऐसा सज उठता है जैसे कोई दरबारी रक्कासा कोर्निश बजाने को तैयार खड़ी हो।दूसरी तरफ, नन्हीं-नन्हीं पत्तियाँ बरसाने वाला गुलमोहर, सुर्ख़ फूलों की पगड़ी बँधते ही किसी अकड़ू ज़मींदार जैसा ऐंठ जाता है। मज़े की बात यह है कि गर्मी के मौसम में जब लाल-पीले रंग के कपडे आँखों में चुभते हैं, तब भी अमलतास और गुलमोहर के फूल मन को ठंडक और सुकून देते हैं। ब्रिटिश हुकूमत ने जब दिल्ली को हिंदुस्तान की राजधानी बनाने का ऐलान किया तब लाल कोट से लेकर शाहजहानाबाद तक की तमाम दिल्लियों को छोड़, एक बिलकुल नयी दिल्ली की नींव रखी गयी। रायसीना पहाड़ी पर आलीशान वाइस रीगल लॉज, उसके दाहिने-बाँये नॉर्थ और साउथ ब्लॉक, और थोड़ा हटकर पार्लियामेंट। अफ़सरों के लिये शानदार बँगले, गोल डाक ख़ाना, गोल मार्किट, गोल्फ़ और पोलो क्लब। एक-दूसरे को समकोण पर काटती चौड़ी सड़कें और चौराहों पर मौसमी फूलों वाले पार्क। नयी दिल्ली की योजना इतनी तफ़सील से बनायी गयी कि किस सड़क के किनारे कौन

अम्बुआ की डारी बोले कारी कोयलिया

Image
मेरी नानी  संगीत का शौक हमारे घरवालों का पुश्तैनी मर्ज़ है। मेरे परनाना पंडित श्याम सुंदर जी बदलते मौसम के अनुरूप होली, चैती, कजरी गुनगुनाते रहते थे। उनकी बड़ी बेटी यानी मेरी नानी केसर कुँवर अपने बाल गोपाल से सारी बतकही गीतों में करती थीं - सुबह सवेरे- "जागिये ब्रजराज कुँवर पंछी बन बोले", श्रृंगार करते समय- "राधे प्यारी दे डारो ना बंसी मोरी" और भोग लगाते समय- "आली म्हाने लागे बृंदावन नीको"। संगीत का यही संस्कार उन्होंने अपनी दोनों बेटियों यानी हमारी माँ-मौसी को भी दिया। मेरी मौसी और माँ  तब तक घर में कुत्ते की फोटू वाला चूड़ी बाजा यानी HMV का ग्रामोफ़ोन आ चुका था और दोनों बहनें अपने जेब-ख़र्च से पैसे बचाकर ख़ूब रिकॉर्ड खरीदा करती थीं। शादी के बाद वे दोनों तो पराये घर चली गयीं लेकिन उनके चुन-चुनकर जमा किये रिकॉर्ड, मय ग्रामोफ़ोन के वहीँ रह गये। अब मेरा बचपन चूंकि ननिहाल में बीता इसलिए मैं अकेली ही इस विरासत की हक़दार बनी। उन रिकार्ड्स में तिमिर बरन, के सी डे, के एल सहगल, जूथिका रे, सचिन देब बर्मन, हेमन्तो मुख़र्जी, खुर्शीद, नूरजहाँ, जैसे परिचित-अपर

जय जगदीश हरे

Image
कल एक मित्र ने फेस बुक पर आनंद मठ का वह बड़ा ही सुमधुर गीत - जय जगदीश हरे - पोस्ट किया। एक अन्य मित्र ने सवाल उठा दिया कि गीता दत्त और हेमंत कुमार का गाया यह गीत आखिर कह क्या रहा है। सच ही तो है जिसने कवि जयदेव की कोमल कान्त पदावली नहीं पढ़ी है, वो तो बेचारे सिर्फ़ "जय जगदीश हरे" की टेक ही पकड़ पाते हैं। ये सवाल एक समय मेरे मन में भी उठा था। उन दिनों बनारस में मेरी नानी की भजन मंडली हर शनिवार को जमा होती थी और भजन-कीर्तन से मन बहलाती थी। मैं बराबर नए गीतों की खोज में रहती थी। उन दिनों रफ़ी साहब का गाया - पाँव पडूँ तोरे श्याम ब्रज में लौट चलो, सुलक्षणा पंडित का गाया - कैसे कान्हा का राधा भरोसा करे और शारदा सिन्हा का गाया - जगदम्बा घर में दियरा बार अइनी हो सीखा और भजन मंडली में गाया। लेकिन परिचित धुनों वाले गीत ज़्यादा जमते थे । सोचा जय जगदीश हरे गाकर देखूँ। लेकिन शब्द पकड़ायी में नहीं आ रहे थे। कहीं से सुन लिया कि यह जयदेव के गीत गोविन्द में मिलेगा। बस, मिल गया कोड़ा! अब क्या चाहिए था? जीन, लगाम और घोड़ा। गीत गोविन्द की तलाश शुरू हो गयी। पहले तो अपने घर की पुस्तकों में ही ढूँढा। न