Posts

Showing posts with the label Writers

Naresh Mehta

Image
ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत नरेश मेहता के नाम से मैं बचपन से ही परिचित थी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर पढ़ाई के दौरान वे मेरे माता-पिता के सहपाठी थे। कुलपति थे डॉ राधाकृष्णन और हिंदी विभाग आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी जैसे उद्भट विद्वानों से सुसज्जित था। हजारी प्रसाद द्विवेदी तभी शांति निकेतन से काशी आये थे। एम ए फाइनल के छात्रों के विदाई समारोह में नरेश जी ने मौलिक कवितायें लिखी थीं। मेरी माँ, शकुंतला शर्मा के लिए उन्होंने बिहारी का दोहा एक सुन्दर से कार्ड पर लिखकर दिया था- अमिय हलाहल मद भरे स्वेत स्याम रतनार। जियत मरत झुकि-झुकि परत जेहि चितवत एक बार। पिताजी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार कृष्ण चन्द्र शर्मा 'भिक्खु' की ओर से लिखी कविता माँ को संबोधित थी - उस आम्र वृक्ष की छाया में हम प्रिये मिले थे प्रथम बार। हम दो तीर्थों के दो प्रतीक तुम काशी की, मैं हरिद्वार।|

फ्रॉम मी टु यू ---- सत्या सरन

समीक्षा : डॉ शुभ्रा शर्मा समाचार क्षणिक होते हैं. एक दिन की खबर चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, अगले दिन बासी हो जाती है. आज का समाचार-पत्र कल की रद्दी बन जाता है. लेकिन उसी समाचार-पत्र में कुछ सामग्री ऐसी भी होती है, जो शाश्वत होती है और सदा प्रासंगिक रहती है क्योंकि उसमें जीवन के अनुभवों का निचोड़ होता है. इसीलिए पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों की दैनिक, साप्ताहिक अथवा पाक्षिक टिप्पणियां कभी बासी नहीं होतीं. उदाहरण के लिए जनसत्ता में बरसों-बरस छपने वाला प्रभाष जोशी का कॉलम 'कागद कोरे' अगर शाश्वत न होता तो क्या पाँच-पाँच जिल्दों में प्रकाशित होता? या फिर अंग्रेजी पत्रिका फेमिना में छपने वाला सत्या सरन का कॉलम 'मी टु यू' अगर आज भी प्रासंगिक न होता तो पुस्तक के रूप में कैसे प्रकाशित होता? हाल में प्रकाशित यह पुस्तक आकार में छोटी है, मात्र 212 पृष्ठ हैं, इसलिए लेटे, बैठे या यात्रा करते हुए आराम से पढ़ी जा सकती है. हर लेख स्वतन्त्र है और लगभग दो से ढाई पृष्ठ का है. कुछ शब्द चित्र हैं, कुछ अमिट छाप छोड़ने वाली घटनाएं हैं और कुछ सोचने के लिए मजबूर करने वाली टिप्पणियां हैं....