Naresh Mehta
ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत नरेश मेहता के नाम से मैं बचपन से ही परिचित थी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर पढ़ाई के दौरान वे मेरे माता-पिता के सहपाठी थे। कुलपति थे डॉ राधाकृष्णन और हिंदी विभाग आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी जैसे उद्भट विद्वानों से सुसज्जित था। हजारी प्रसाद द्विवेदी तभी शांति निकेतन से काशी आये थे। एम ए फाइनल के छात्रों के विदाई समारोह में नरेश जी ने मौलिक कवितायें लिखी थीं। मेरी माँ, शकुंतला शर्मा के लिए उन्होंने बिहारी का दोहा एक सुन्दर से कार्ड पर लिखकर दिया था- अमिय हलाहल मद भरे स्वेत स्याम रतनार। जियत मरत झुकि-झुकि परत जेहि चितवत एक बार।
पिताजी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार कृष्ण चन्द्र शर्मा 'भिक्खु' की ओर से लिखी कविता माँ को संबोधित थी -
उस आम्र वृक्ष की छाया में हम प्रिये मिले थे प्रथम बार।
हम दो तीर्थों के दो प्रतीक तुम काशी की, मैं हरिद्वार।|
नरेश जी के सुन्दर अक्षरों में, छपे हुए से लगते ये दोनों कार्ड बहुत दिनों तक पिताजी के पत्राचार वाले फोल्डर में सहेजकर रखे हुए थे।
शरारत का यह हाल था कि एक बार किसी समारोह में दिल्ली आने पर मेरी माँ के पास ठहरे। पिताजी उन दिनों आकाशवाणी की नौकरी के सिलसिले में शायद लखनऊ या पटना में थे। जाते समय माँ को अपनी नयी पुस्तक भेंट की और प्रथम पृष्ठ पर लिख गए - "प्रिय शकुंतला को रात्रि प्रवास की स्मृति मे।" अब यदि शकुंतला जी के पतिदेव उनके विनोदी स्वभाव से परिचित न होते तो तलाक की नौबत आ सकती थी।
कुछ बड़ी हुई तो साहित्यकार नरेश मेहता से जान-पहचान हुई। मुझे याद है सबसे पहले मैंने उनका बृहद काय उपन्यास 'यह पथ बंधु था' पढ़ा। उनके कवि रूप को जाना जब रामकथा पर आधारित 'संशय की एक रात' और महाभारत कथा की चरम परिणति 'महाप्रस्थान' पढने का सुयोग प्राप्त हुआ। संस्कृतनिष्ठ भाषा और कथ्य की दुरूहता कहीं आड़े नहीं आयी। मैं महाप्रस्थान पर निकले पांडवों के साथ हिमालय के निर्जन, दुर्गम वन प्रांतर में बढती चली गयी -
हिम
केवल हिम
केवल चलना
इस कठोर, ठंडी तापस प्रशान्तता पर
केवल चलना
ऊर्ध्व, ऊर्ध्वतम ही है चलना
जैसे पृथ्वी चलकर गौरीशंकर बनती!
छूट गए पीछे
कस्तूरी मृग वाले
वे मधु-माधव से जंगल,
ग्रीष्म तपे
तंबियाये झरे पात की
वे वनानियाँ,
गिरे चीड फूलों से लदी भूमि
और औषधियों के वल्कल पहने परम हितैषी वृक्ष
.....
वन दुर्दम्य भले ही हों
पर मानुष-गंधी भी होते हैं।
कैसा आश्वासित कर जाता था,
कृष्णा-कपिलाओं की घंटी का स्वर
कहीं किसी बस्ती का
वह झीना पतला-सा धुंआ मात्र
कौटुम्बिकता का सुख देता।
शायद १९७८ या ७९ का वर्ष रहा होगा, जब धर्मयुग के किसी अंक में नरेश जी की एक कविता छपी थी - प्रार्थना धेनुएँ। कविता मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने उसे अपनी डायरी में उतार लिया। तब से अब तक के लम्बे अंतराल में जब-जब निराशा के थपेड़े बहुत प्रबल हुए हैं, जब-जब आस्था डगमगायी है, इसी कविता ने मुझे संबल दिया है। मैंने कल्पना की आँखों से साफ देखा है कि मैं अकेली नहीं हूँ, कहीं कोई है जो अहोरात्र मेरे लिए प्रार्थना कर रहा है -
विश्वास करो
तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है।
स्मरण करो
कोई-सा भी उपाधिहीन सादा-सा दिन
जब तुम्हें अनायास अपने स्वत्व में
किसी कृष्णगंध की प्रतीति हुई हो
अथवा, किसी ऐसे राग की असमाप्तता
तुम्हारी देह बाँशी को
गो-वत्स की भांति विह्वल कर गयी हो।
विश्वास करो
स्मरण के उस गो-चारण में
कहीं तुम्हारे लिए
कोई प्रार्थना धेनुएँ दुह रहा होता है।
व्यक्तित्व की यह वृन्दावनता ही प्रार्थना है।
प्रार्थना की कोई भाषा नहीं होती।
जिस उदार भाव से वनस्पतियाँ
धरा को वस्त्रित किये रहती हैं
कीर्तन पंक्तियों-सी दूर्वा
जिस निष्ठा से
भूमि को उत्सव किये रहती है
ये सब अनुष्टुप नहीं हैं?
अपने फूलों को देता हुआ पादप
प्रार्थना ही तो करता है,
मेघों की लिखित प्रार्थनाएं ही
तो नदियाँ हैं,
कोई इन परंतपा, रंभाती प्रार्थना-धेनुओं को
अहोरात्रिक दुह रहा है।
विश्वास करो
तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है।
वह वैष्णव है।
और अब उम्र के इस पड़ाव पर कविता कोष के माध्यम से नरेश जी एक और कविता पढ़ी और गुनी। तबसे लगातार सोच रही हूँ स्त्री-विमर्श पर क्या इससे बेहतर कुछ कहा जा सकता है।
मैं तो मात्र मृत्तिका हूँ
-जब तुम
मुझे पैरों से रौंदते हो
तथा हल के फाल से विदीर्ण करते हो
तब मैं -धन-धान्य बनकर मातृरूपा हो जाती हूँ।
जब तुम
मुझे हाथों से स्पर्श करते हो
तथा चाक पर चढ़ाकर घुमाने लगते हो
तब मैं -कुंभ और कलश बनकर
जल लाती तुम्हारी अंतरंग प्रिया हो जाती हूँ।
जब तुम मेले में मेरे खिलौने रूप पर
आकर्षित होकर मचलने लगते हो
तब मैं -तुम्हारे शिशु हाथों में पहुंच प्रजारूपा हो जाती हूँ।
पर जब भी तुम
अपने पुरुषार्थ-पराजित स्वत्व से मुझे पुकारते हो
तब मैं -अपने ग्राम्य देवत्व के साथ चिन्मयी शक्ति हो जाती हूँ
(प्रतिमा बन तुम्हारी आराध्या हो जाती हूं)
विश्वास करो
यह सबसे बड़ा देवत्व है,
कि -तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो
और मैं स्वरूप पाती मृत्तिका।
क्यों अब ऐसी कवितायें नहीं लिखी जा रहीं? क्यों विचारों का, भावनाओं का और भाषा का ऐसा दुर्भिक्ष पड़ा है कि एक समय के सशक्त हस्ताक्षर 'ओस के शीशों पर पाँव कटने' के अंदेशे की चिंता छोड़ आजकल इब्न-बतूता के जूते की चिंता कर रहे हैं।
पिताजी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार कृष्ण चन्द्र शर्मा 'भिक्खु' की ओर से लिखी कविता माँ को संबोधित थी -
उस आम्र वृक्ष की छाया में हम प्रिये मिले थे प्रथम बार।
हम दो तीर्थों के दो प्रतीक तुम काशी की, मैं हरिद्वार।|
नरेश जी के सुन्दर अक्षरों में, छपे हुए से लगते ये दोनों कार्ड बहुत दिनों तक पिताजी के पत्राचार वाले फोल्डर में सहेजकर रखे हुए थे।
शरारत का यह हाल था कि एक बार किसी समारोह में दिल्ली आने पर मेरी माँ के पास ठहरे। पिताजी उन दिनों आकाशवाणी की नौकरी के सिलसिले में शायद लखनऊ या पटना में थे। जाते समय माँ को अपनी नयी पुस्तक भेंट की और प्रथम पृष्ठ पर लिख गए - "प्रिय शकुंतला को रात्रि प्रवास की स्मृति मे।" अब यदि शकुंतला जी के पतिदेव उनके विनोदी स्वभाव से परिचित न होते तो तलाक की नौबत आ सकती थी।
कुछ बड़ी हुई तो साहित्यकार नरेश मेहता से जान-पहचान हुई। मुझे याद है सबसे पहले मैंने उनका बृहद काय उपन्यास 'यह पथ बंधु था' पढ़ा। उनके कवि रूप को जाना जब रामकथा पर आधारित 'संशय की एक रात' और महाभारत कथा की चरम परिणति 'महाप्रस्थान' पढने का सुयोग प्राप्त हुआ। संस्कृतनिष्ठ भाषा और कथ्य की दुरूहता कहीं आड़े नहीं आयी। मैं महाप्रस्थान पर निकले पांडवों के साथ हिमालय के निर्जन, दुर्गम वन प्रांतर में बढती चली गयी -
हिम
केवल हिम
केवल चलना
इस कठोर, ठंडी तापस प्रशान्तता पर
केवल चलना
ऊर्ध्व, ऊर्ध्वतम ही है चलना
जैसे पृथ्वी चलकर गौरीशंकर बनती!
छूट गए पीछे
कस्तूरी मृग वाले
वे मधु-माधव से जंगल,
ग्रीष्म तपे
तंबियाये झरे पात की
वे वनानियाँ,
गिरे चीड फूलों से लदी भूमि
और औषधियों के वल्कल पहने परम हितैषी वृक्ष
.....
वन दुर्दम्य भले ही हों
पर मानुष-गंधी भी होते हैं।
कैसा आश्वासित कर जाता था,
कृष्णा-कपिलाओं की घंटी का स्वर
कहीं किसी बस्ती का
वह झीना पतला-सा धुंआ मात्र
कौटुम्बिकता का सुख देता।
शायद १९७८ या ७९ का वर्ष रहा होगा, जब धर्मयुग के किसी अंक में नरेश जी की एक कविता छपी थी - प्रार्थना धेनुएँ। कविता मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने उसे अपनी डायरी में उतार लिया। तब से अब तक के लम्बे अंतराल में जब-जब निराशा के थपेड़े बहुत प्रबल हुए हैं, जब-जब आस्था डगमगायी है, इसी कविता ने मुझे संबल दिया है। मैंने कल्पना की आँखों से साफ देखा है कि मैं अकेली नहीं हूँ, कहीं कोई है जो अहोरात्र मेरे लिए प्रार्थना कर रहा है -
विश्वास करो
तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है।
स्मरण करो
कोई-सा भी उपाधिहीन सादा-सा दिन
जब तुम्हें अनायास अपने स्वत्व में
किसी कृष्णगंध की प्रतीति हुई हो
अथवा, किसी ऐसे राग की असमाप्तता
तुम्हारी देह बाँशी को
गो-वत्स की भांति विह्वल कर गयी हो।
विश्वास करो
स्मरण के उस गो-चारण में
कहीं तुम्हारे लिए
कोई प्रार्थना धेनुएँ दुह रहा होता है।
व्यक्तित्व की यह वृन्दावनता ही प्रार्थना है।
प्रार्थना की कोई भाषा नहीं होती।
जिस उदार भाव से वनस्पतियाँ
धरा को वस्त्रित किये रहती हैं
कीर्तन पंक्तियों-सी दूर्वा
जिस निष्ठा से
भूमि को उत्सव किये रहती है
ये सब अनुष्टुप नहीं हैं?
अपने फूलों को देता हुआ पादप
प्रार्थना ही तो करता है,
मेघों की लिखित प्रार्थनाएं ही
तो नदियाँ हैं,
कोई इन परंतपा, रंभाती प्रार्थना-धेनुओं को
अहोरात्रिक दुह रहा है।
विश्वास करो
तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है।
वह वैष्णव है।
और अब उम्र के इस पड़ाव पर कविता कोष के माध्यम से नरेश जी एक और कविता पढ़ी और गुनी। तबसे लगातार सोच रही हूँ स्त्री-विमर्श पर क्या इससे बेहतर कुछ कहा जा सकता है।
मैं तो मात्र मृत्तिका हूँ
-जब तुम
मुझे पैरों से रौंदते हो
तथा हल के फाल से विदीर्ण करते हो
तब मैं -धन-धान्य बनकर मातृरूपा हो जाती हूँ।
जब तुम
मुझे हाथों से स्पर्श करते हो
तथा चाक पर चढ़ाकर घुमाने लगते हो
तब मैं -कुंभ और कलश बनकर
जल लाती तुम्हारी अंतरंग प्रिया हो जाती हूँ।
जब तुम मेले में मेरे खिलौने रूप पर
आकर्षित होकर मचलने लगते हो
तब मैं -तुम्हारे शिशु हाथों में पहुंच प्रजारूपा हो जाती हूँ।
पर जब भी तुम
अपने पुरुषार्थ-पराजित स्वत्व से मुझे पुकारते हो
तब मैं -अपने ग्राम्य देवत्व के साथ चिन्मयी शक्ति हो जाती हूँ
(प्रतिमा बन तुम्हारी आराध्या हो जाती हूं)
विश्वास करो
यह सबसे बड़ा देवत्व है,
कि -तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो
और मैं स्वरूप पाती मृत्तिका।
क्यों अब ऐसी कवितायें नहीं लिखी जा रहीं? क्यों विचारों का, भावनाओं का और भाषा का ऐसा दुर्भिक्ष पड़ा है कि एक समय के सशक्त हस्ताक्षर 'ओस के शीशों पर पाँव कटने' के अंदेशे की चिंता छोड़ आजकल इब्न-बतूता के जूते की चिंता कर रहे हैं।
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