Ham donon
आज कल देश में जिस तरह की बहस छिड़ी हुई है, उसे देख-सुनकर मुझे नज़ीर मामू बहुत याद आते हैं। नज़ीर मामू यानी हरदिलअज़ीज़ शायर नज़ीर बनारसी। मैंने पहली बार उन्हें बनारस कैंट रेलवे स्टेशन पर देखा था। मेरी अम्मा डॉ शकुन्तला शर्मा अपर इंडिया एक्सप्रेस से दिल्ली जा रही थीं और हम सब उन्हें छोड़ने स्टेशन गए थे। छोटे से क़द के नज़ीर साहब लकदक सफ़ेद कुर्ते पायजामे में अच्छे तो लग रहे थे लेकिन मैं और मेरे ममेरे-फुफेरे भाई उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ हमें हर बात पर बेवजह, बेतहाशा हँसी आती थी। सो नज़ीर साहब पर भी हँसना शुरू हो गये। लेकिन अम्मा पहले उनसे मिल चुकी थीं। उनके अदबो-इल्म से वाक़िफ़ थीं। उन्होंने हमारी ही-ही ठी-ठी पर आँखें तरेरीं और मुझे पास बुलाकर परिचय कराया। मैंने बमुश्किल हँसी पर क़ाबू पाते हुए सलाम किया। उन्होंने जिस तरह सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया, मुझे बहुत अच्छा लगा। दिल्ली तक की उस यात्रा में उन्होंने अम्मा को बहन मान लिया और तभी से वे हमारे मामू हो गए। कई साल हम उनसे ईदी वसूलते रहे।
बाद में वे मेरे नानाजी के अच्छे दोस्त बन गये थे। जब कभी कुछ नया लिखते आकर सुनाते। हम भी फरमाइशें कर-कर के उनकी नज़्में सुनते। गंगा, शंकर, और भी बहुत कुछ। मुझे लगता है शेरो-शायरी का जो शौक़ नानाजी की वजह से पैदा हुआ था, उसे परवान चढ़ाने में नज़ीर मामू का बहुत बड़ा हाथ रहा।
नज़ीर मामू मुशायरों में अपना परिचय इस तरह देते थे -
मैं बनारस का निवासी, काशी नगरी का फ़क़ीर
हिन्द का शायर हूँ, शिव की राजधानी का सफ़ीर
लेके अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे
नाम है मेरा नज़ीर औ मेरी नगरी बेनज़ीर।
उनकी एक ग़ज़ल का मतला देखिये। कहते हैं -
ख़म-ए-मेहराब-ए-हरम भी ख़म-ए-अबरू तो नहीं?
कहीं काबे में भी काशी के सनम तू तो नहीं?
ऐसा कुफ़्र बोलने वाले पर ईमान वालों को भला नाराज़गी कैसे न होती? चुनांचे मक्ते का शेर हुआ -
हिन्दुओं को तो यक़ीं है कि मुसलमाँ है नज़ीर
कुछ मुसलमाँ हैं,जिन्हें शक़ है कि हिन्दू तो नहीं?
चीन के हमले के बाद जब सारा देश सकते में था, नज़ीर साहब ने एक लम्बी नज़्म लिखी थी -
मैं हूँ शंकर पयाम देता हूँ तुमको आज अपनी राजधानी से।
कभी कश्मीर का दिया एक अंग , कभी तिब्बत गँवा के बैठ गये
कभी नेफा पे दे दिया क़ब्ज़ा , तो कभी कच्छ लुटाके बैठ गये
जिनको आता है जान देना वो, अपनी धरती नहीं दिया करते
धरती माता है और माता का बेटे सौदा नहीं किया करते।
है जहाँ आज दुश्मनों की फ़ौज कल वहां दुश्मनों की राख रहे
जियो दुनिया में आबरू के साथ जान जाये तो जाये ,साख रहे।
मुशायरे में जाते तो लोग इसे सुने बिना पीछा नहीं छोड़ते थे। जैसे ही वे कहते - मैं हूँ शंकर ! तो बस तालियों का सैलाब उमड़ पड़ता जैसे रुकने को तैयार ही न हो।
नज़ीर साहब को अपने हिंदुस्तान पर, अपने बनारस पर और अपनी बनारसियत पर गर्व था और ता-उम्र रहा --
मेरे बाद ऐ बुताने -शहर-ए -काशी , मुझ ऐसा अहले -ईमां कौन होगा
करे है ऐन बुतख़ाने में सजदा नज़ीर ऐसा मुसलमाँ कौन होगा ?
आज वो हमारे बीच नहीं हैं वरना बिला वजह झगड़ते लोगों को एक बार फिर समझाते -
दिलों की बाहमी तल्ख़ी मिटा सकते हैं हम दोनों
हिजाबे-दरमियाँ अब भी उठा सकते हैं हम दोनों।
न पड़ने दें अगर गर्द-ए-कदूरत शीशा-ए-दिल पर
मोहब्बत को भी आईना दिखा सकते हैं हम दोनों।
फ़क़त बारे-मोहब्बत ही एक ऐसा बार है जिससे
हर एक उठता हुआ फ़ितना दबा सकते हैं हम दोनों।
बाद में वे मेरे नानाजी के अच्छे दोस्त बन गये थे। जब कभी कुछ नया लिखते आकर सुनाते। हम भी फरमाइशें कर-कर के उनकी नज़्में सुनते। गंगा, शंकर, और भी बहुत कुछ। मुझे लगता है शेरो-शायरी का जो शौक़ नानाजी की वजह से पैदा हुआ था, उसे परवान चढ़ाने में नज़ीर मामू का बहुत बड़ा हाथ रहा।
नज़ीर मामू मुशायरों में अपना परिचय इस तरह देते थे -
मैं बनारस का निवासी, काशी नगरी का फ़क़ीर
हिन्द का शायर हूँ, शिव की राजधानी का सफ़ीर
लेके अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे
नाम है मेरा नज़ीर औ मेरी नगरी बेनज़ीर।
उनकी एक ग़ज़ल का मतला देखिये। कहते हैं -
ख़म-ए-मेहराब-ए-हरम भी ख़म-ए-अबरू तो नहीं?
कहीं काबे में भी काशी के सनम तू तो नहीं?
ऐसा कुफ़्र बोलने वाले पर ईमान वालों को भला नाराज़गी कैसे न होती? चुनांचे मक्ते का शेर हुआ -
हिन्दुओं को तो यक़ीं है कि मुसलमाँ है नज़ीर
कुछ मुसलमाँ हैं,जिन्हें शक़ है कि हिन्दू तो नहीं?
मैं हूँ शंकर पयाम देता हूँ तुमको आज अपनी राजधानी से।
कभी कश्मीर का दिया एक अंग , कभी तिब्बत गँवा के बैठ गये
कभी नेफा पे दे दिया क़ब्ज़ा , तो कभी कच्छ लुटाके बैठ गये
जिनको आता है जान देना वो, अपनी धरती नहीं दिया करते
धरती माता है और माता का बेटे सौदा नहीं किया करते।
है जहाँ आज दुश्मनों की फ़ौज कल वहां दुश्मनों की राख रहे
जियो दुनिया में आबरू के साथ जान जाये तो जाये ,साख रहे।
मुशायरे में जाते तो लोग इसे सुने बिना पीछा नहीं छोड़ते थे। जैसे ही वे कहते - मैं हूँ शंकर ! तो बस तालियों का सैलाब उमड़ पड़ता जैसे रुकने को तैयार ही न हो।
नज़ीर साहब को अपने हिंदुस्तान पर, अपने बनारस पर और अपनी बनारसियत पर गर्व था और ता-उम्र रहा --
मेरे बाद ऐ बुताने -शहर-ए -काशी , मुझ ऐसा अहले -ईमां कौन होगा
करे है ऐन बुतख़ाने में सजदा नज़ीर ऐसा मुसलमाँ कौन होगा ?
आज वो हमारे बीच नहीं हैं वरना बिला वजह झगड़ते लोगों को एक बार फिर समझाते -
दिलों की बाहमी तल्ख़ी मिटा सकते हैं हम दोनों
हिजाबे-दरमियाँ अब भी उठा सकते हैं हम दोनों।
न पड़ने दें अगर गर्द-ए-कदूरत शीशा-ए-दिल पर
मोहब्बत को भी आईना दिखा सकते हैं हम दोनों।
फ़क़त बारे-मोहब्बत ही एक ऐसा बार है जिससे
हर एक उठता हुआ फ़ितना दबा सकते हैं हम दोनों।
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