अमलतास को कौन छिपाये
मार्च-अप्रैल अगर टेसू और आम के महीने कहे जा सकते हैं तो मई-जून अमलतास और गुलमोहर के महीने हैं। मई आते न आते हरी निखरी पत्तियों वाला अमलतास पीले फूलों के गुच्छों से ऐसा सज उठता है जैसे कोई दरबारी रक्कासा कोर्निश बजाने को तैयार खड़ी हो।दूसरी तरफ, नन्हीं-नन्हीं पत्तियाँ बरसाने वाला गुलमोहर, सुर्ख़ फूलों की पगड़ी बँधते ही किसी अकड़ू ज़मींदार जैसा ऐंठ जाता है।
मज़े की बात यह है कि गर्मी के मौसम में जब लाल-पीले रंग के कपडे आँखों में चुभते हैं, तब भी अमलतास और गुलमोहर के फूल मन को ठंडक और सुकून देते हैं।
ब्रिटिश हुकूमत ने जब दिल्ली को हिंदुस्तान की राजधानी बनाने का ऐलान किया तब लाल कोट से लेकर शाहजहानाबाद तक की तमाम दिल्लियों को छोड़, एक बिलकुल नयी दिल्ली की नींव रखी गयी। रायसीना पहाड़ी पर आलीशान वाइस रीगल लॉज, उसके दाहिने-बाँये नॉर्थ और साउथ ब्लॉक, और थोड़ा हटकर पार्लियामेंट। अफ़सरों के लिये शानदार बँगले, गोल डाक ख़ाना, गोल मार्किट, गोल्फ़ और पोलो क्लब। एक-दूसरे को समकोण पर काटती चौड़ी सड़कें और चौराहों पर मौसमी फूलों वाले पार्क। नयी दिल्ली की योजना इतनी तफ़सील से बनायी गयी कि किस सड़क के किनारे कौन से पेड़ लगाये जायेंगे, यह भी पहले से तय कर लिया गया था।
दरअसल दिल्ली के गोशे-गोशे में इतिहास बिखरा पड़ा है। हर तरफ़ कोई पुराना महल, सराय, ख़ानक़ाह या मक़बरा है। उनकी खूबसूरती को उभारने वाले पेड़ लगाने की योजना बनायी गयी थी। इमारत की लम्बाई-चौड़ाई के हिसाब से छोटे-बड़े पेड़ चुने गये। किसी सड़क पर इमली, किसी पर नीम, कहीं जामुन तो कहीं सप्तपर्णी के पेड़ लगाये गये। अमलतास और गुलमोहर उस योजना का हिस्सा नहीं थे इसलिए किसी भी सड़क पर उनकी नियमित क़तार नहीं मिलती। लेकिन शुक्र है बाद की सरकारें और उनके बाग़बानी विभाग के अफ़सर इतना सोच-समझ कर काम नहीं करते थे, इसलिये पीले और लाल फूलों से लदे ये पेड़ किसी भी मोड़ पर मिल जाते हैं और आपको याद दिला जाते हैं कि मई का महीना आ गया है।
वैसे लाल-पीले की इस जुगलबंदी की मैं तभी से क़ायल हो गयी थी, जब बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से एम ए कर रही थी। मुख्य द्वार से अंदर जाते ही सड़क के दोनों तरफ़ अमलतास और गुलमोहर की दोहरी क़तार थी। मई-जून की कड़ी धूप में सड़क का कोलतार पिघल कर चिकनी काली साड़ी जैसा लगता, जिस पर पीले और लाल रंग के गुल-बूटे कढ़े हों। कभी जब आसमान में बादल छाये होते तो तीनों रंग इतने चटकीले लगते जैसे किसी पुरानी तस्वीर पर नया पेंट कर दिया गया हो।
पीले अमलतास के बारे में बच्चन जी ने लिखा है -
वैसे लाल-पीले की इस जुगलबंदी की मैं तभी से क़ायल हो गयी थी, जब बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से एम ए कर रही थी। मुख्य द्वार से अंदर जाते ही सड़क के दोनों तरफ़ अमलतास और गुलमोहर की दोहरी क़तार थी। मई-जून की कड़ी धूप में सड़क का कोलतार पिघल कर चिकनी काली साड़ी जैसा लगता, जिस पर पीले और लाल रंग के गुल-बूटे कढ़े हों। कभी जब आसमान में बादल छाये होते तो तीनों रंग इतने चटकीले लगते जैसे किसी पुरानी तस्वीर पर नया पेंट कर दिया गया हो।
पीले अमलतास के बारे में बच्चन जी ने लिखा है -
डार पात सब पीत पुष्पमय जो कर लेता, अमलतास को कौन छिपाये
सेमल और पलाशों ने सिन्दूर पताके नहीं गगन में क्यों फहराये
बौरे आमों पर बौराये भँवर न आये कैसे समझूँ मधु ऋतु आई ?
लाल गुलमोहर के बारे में गुलज़ार साहब का गाना तो हम सबकी ज़बान पर चढ़ा ही रहता है -
गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता
मौसमे-गुल को हँसाना भी हमारा काम होता।
बचपन में हम गुलमोहर की कली से हाथी बनाते थे। खिलने को तैयार कली में चार पैर और एक सूँड पहले से मौजूद होती थी। सारा हुनर उन्हें हलके हाथों से अलग करने का था। आज बरसों बाद मैंने फिर हाथी बनाने की कोशिश की है।
Abhishek Bhadauria :
ReplyDeleteAwesome....
Suman Sharma :
ReplyDeleteक्या सशक्त और सजीव चित्रण है आपकी कलम का।बच्चों की तरह शब्द भी आपकी (मां) इंतजार में रहते होंगे कि कब आप उन्हें उठाएं।
Suman Keshari :
ReplyDeleteआप और विस्तार से लिखा करें...एकदम ही खत्म हो गया...अच्छा लग रहा था पढ़ते जाना...