kahin door jab din dhal jaye
उदास सी साँझ घिर आई थी। दूर क्षितिज पर डूबते सूरज के ललछौंहे निशान धुँधले पड़ते जा रहे थे। बरामदे में खड़ा आनंद गा रहा था -- कहीं दूर जब दिन ढल जाये साँझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाये। तभी बाबू मोशाय भास्कर बैनर्जी चुपके से आकर उसके पीछे खड़े हो जाते हैं। आनंद पूछता है - ऐ बाबू मोशाय! चोरी-चोरी मेरा गाना सुन रहे थे? कैसा लगा? भास्कर जवाब देते हैं - अच्छा था। लेकिन कुछ उदास लगा। आनंद कहता है - उदासी क्या सुन्दर नहीं होती ! हृषिकेश मुखर्जी और गुलज़ार की कल्पनाशीलता और क्राफ्ट की बदौलत यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में उदास संध्या का ऐसा बेजोड़ चित्र है, जिससे बेहतर न अब तक हुआ, न हो सकता है। "न भूतो न भविष्यति।" कुछ और भी चित्र उभरते हैं। जैसे वहीदा रहमान वाली फागुन फिल्म का - संध्या जो आये मन उड़ जाये जाने रे कहाँ, करूँ क्या उपाय ? विरहिणी नायिका का निपट एकाकीपन, उसके घर और जीवन का सूनापन ज...