पलातक / राहगीर
मैं इतिहास की विद्यार्थी रही हूँ। मानव सभ्यता का इतिहास पढ़ा तो जाना कि आदिम काल में मानव किसी तरह के बंधनों से जकड़ा हुआ नहीं था। मुक्त गगन में उड़ते पंछी की तरह जब, जिधर, जी किया -चल पड़ा, जहाँ रात ढली -सो गया, जब किसी दृश्य से मन भर गया - नए दृश्य की तलाश में बढ़ गया। उस आदिम मनुष्य की तुलना में हम कितने बंधनों से घिरे हुए हैं -घर, परिवार, शहर, परिवेश, शिक्षा, रोज़ी-रोटी, बोली-भाषा, खान-पान और भी न जाने क्या-क्या। चाहें भी तो इनसे पीछा छुड़ाकर कहीं नहीं जा सकते। कभी बहुत सोच-विचार कर, बड़ी योजनायें बनाकर, बहुत सा पैसा ख़र्चकर, कहीं जाते भी हैं तो यही सोचते रह जाते हैं - घर का ताला ठीक से बंद किया था या नहीं? बालकनी की खिड़की खुली तो नहीं रह गयी? कोई नल टपकता तो नहीं रह गया?

मैं उन लोगों को बहुत बड़े बहादुरों की श्रेणी में रखती हूँ जो घर-परिवार का मोह-बंधन तोड़कर दूर परदेस चले जाने की हिम्मत रखते हैं। जैसेकि मेरे बेटे का दोस्त चन्द्रशेखर। बी ए करने के बाद किसी एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में दाख़िला लेने न्यूज़ीलैंड चला गया। कुछ दिन पढ़ा, कुछ दिन टिफ़िन सर्विस चलायी, फिर ग़ैर-अंग्रेज़ी-भाषियों को अंग्रेज़ी पढ़ाने लगा। वहाँ की एक माओरी लड़की की तस्वीरें भेजकर सूचना दी कि उससे शादी करने जा रहा है। काफ़ी दिनों तक उसका कोई समाचार न मिलने पर मैंने फोन किया तो पता चला अब वह सूडान में है और वहाँ के विदेश जाने के इच्छुक लोगों को अंग्रेज़ी पढ़ा रहा है। एक दिन उसने फ़ोन करके मुझसे गीता के एक श्लोक का अर्थ पूछा। मैं हैरान ! मैंने कहा - सूडान में अंग्रेज़ी पढ़ने वालों को गीता-ज्ञान की ज़रुरत कैसे पड़ गयी? तो बोला - अपना ज्ञान अपडेट कर लो माई। मैं आजकल कैनडा में लोगों को योग और गीता का उपदेश दे रहा हूँ।
अब ऐसे सैलानी तबियत के व्यक्ति को आप क्या कहेंगे? अंग्रेज़ी के किसी कवि की पंक्ति याद आती है - "Foot loose and fancy free" या फिर बांग्ला शब्द "पलातक" क्योंकि हिंदी का "भगोड़ा" शब्द तो उसे परिभाषित नहीं करता। भगोड़ा में एक अन्तर्निहित कायरता है, जबकि मेरी नज़र में यह सामान्य से अधिक बहादुरी का काम है। शायद मेरी इस विवेचना से निर्देशक तरुण मजूमदार और निर्माता हेमंत मुखर्जी भी सहमत थे क्योंकि जब उन्होंने बांग्ला फ़िल्म 'पलातक' का हिंदी संस्करण बनाया तो उसका नाम रखा 'राहगीर'। अगर उन्होंने सुमित्रानंदन पंत जी को पढ़ा होता तो फिल्म का नाम शायद 'चिरपथिक' होता। लेकिन 'राहगीर' शब्द पूरी कैफ़ियत बयान नहीं करता। उस व्यक्ति की हर तरह के बंधनों से मुक्त होने की तड़प को, उसकी छटपटाहट को व्यक्त नहीं करता।
नाम में भले ही कमी रह गयी हो लेकिन फिल्म बहुत ख़ूब थी - बहुत ख़ूबसूरत, बहुत भोली और बहुत प्यारी। तभी तो आज से पचास साल पहले देखी जाने पर भी ऐसी याद धरी है, जैसे कल ही देखी हो। चॉकलेट हीरो कहे जाने वाले विश्वजीत को इससे पहले हमने सिर्फ़ रहस्य और रोमांस की फिल्मों में देखा था और कोई ख़ास पसंद नहीं किया था। लेकिन इस फ़िल्म में "चरैवेति चरैवेति" की धुन वाले राहगीर की भूमिका में वे इतने जँचे कि कुछ न पूछिये। फिल्मों में राजेश खन्ना की आमद हो चुकने के बावजूद अगर हम जैसी उनकी कड़छुलों को उनके अलावा किसी और हीरो की फ़िल्म इस क़दर हर्फ़-ब-हर्फ़ याद है तो उसका कुछ श्रेय तो विश्वजीत को भी दिया जाना चाहिये। हालाँकि ज़्यादा श्रेय गुलज़ार के गीतों और हेमंत कुमार के संगीत को जाता है। पलातक का गीत नायक की भटकन को अभिव्यक्त करता था -
"जीबनपुरेर पथिक रे भाई कौनो देशेर साकिन नाँय
कोथाओ आमार मोनेर खबर पेलाम नाँय।"
तो राहगीर का गीत उसे और भी स्पष्ट, मुखर कर रहा था -
"जनम से बंजारा हूँ बंधु, जनम-जनम बंजारा
कहीं कोई घर ना घाट न अँगनारा।"
एक दिन यह भटकता राहगीर बुखार में तपता हुआ एक छोटे से गाँव के बैदजी के घर पहुँच जाता है। बैदजी उसे दवा देते हैं और उनकी बेटी उसे मुफ़्तख़ोर होने के ताने देती रहती है। ठीक होने पर राहगीर कुछ दिन वहीँ टिक जाता है। दिन में उनके छोटे-मोटे काम कर देता है और रात में नौटंकी देखता है। लेकिन बैदजी के अचानक गुज़र जाने पर वह पल्ला झाड़कर नहीं जा पाता और उनकी असहाय बेटी से शादी कर, उसे अपने घर ले जाता है। घर वाले बहू को देखकर बहुत खुश होते हैं कि शायद अब वह घर में रहकर गृहस्थी सँभालेगा। लेकिन जिसके पैर में चक्कर हो, वह घर में कितने दिन टिक सकता है? वह फिर निकल जाता है, नयी नौटंकी, नये लोगों की तलाश में।
इस बार उसकी भेंट गुलाबो से होती है। ढलती उम्र की इस नर्तकी को उससे प्रेम हो जाता है लेकिन वह केवल उसकी कला का गुणग्राहक है। गुलाबो की आँखें उसे अपनी माँ की याद दिलाती हैं -
"तुम्हारे नैन देखके सुना है लोग जोगी हो गये,
तुम्हारे नैन देखके
किसी की आस गयी, किसी की प्यास गयी,
किसी को जान मिली, हमारी साँस गयी।"
फ़िल्म के गीत तो आप यूट्यूब या गाना.कॉम के सौजन्य से सुन सकते हैं। अगर थोड़ी-बहुत बांग्ला समझ लेते हैं, तो पलातक भी देख सकते हैं। लेकिन राहगीर को देखना शायद संभव न हो पाये, क्योंकि सुना है उसका एकमात्र प्रिंट नष्ट हो चुका है। ज़ाहिर है ऐसे में हम अपनी ख़ुशनसीबी पर रश्क करते हैं कि हमने न सिर्फ उसे देखा है बल्कि यादों में भी बसा रखा है।
Bahut khoob Shubhra. Apni lekhni se sab sajeev kar deti ho.
ReplyDeleteI agree... बहुत खूब लिखा है... ❤️❤️❤️
ReplyDeleteवर्तमान में आपका ब्लॉग कहाँ पढ़ने को मिल सकता है। आपकी लेखनी अद्वितीय है।
ReplyDelete