पचास साल बाद - २

पचास साल पहले मिरामार बीच पर खोये जूते को अंतिम विदा देकर मैं लुइस की टैक्सी में बैठ जाती हूँ। मन में अब भी पापा की सीख गूँज रही है, हालाँकि आज उनकी बात पर विश्वास करना कठिन है कि मेरा जूता किसी ज़रूरतमंद लड़की को ही मिला होगा। लुइस को समझाती हूँ कि मिरामार से पणजी की तरफ जाती सड़क पर कहीं वह होटल था, जो पचास साल पहले, गर्मी की छुट्टी भर हमारा घर था। उसके बगल से एक सड़क सब्ज़ी मंडी जाती थी और उसके आगे मिलिट्री हॉस्पिटल था। लुइस कहता है - ओह! कम्पाल एरिया ! इस नाम से मेरी यादों में कोई घंटी नहीं बजती। लेकिन मैं उस होटल को ढूँढ निकालने के लिये बहुत उत्सुक हूँ। वहाँ मेरे अम्मा-पापा हैं, अलसेशियन गोआ है, क्लेमेंटीन आंटी है। हमारे कमरे की वो बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ हैं, जिनकी विंडो सिल पर बैठकर अगुआद का क़िला और मांडोवी में आती-जाती नावें देखी जा सकती हैं। सर्विस लेन के आगे वो पेड़ है, जिसकी टहनियाँ कुछ इस तरह निकली हैं कि उनके संधिस्थल पर बड़े आराम से टेक लगाकर बैठा जा सकता है। जहाँ बैठकर मैं कालिदास ग्रंथावली पढ़ती हूँ और गोआ पेड़ के नीचे बैठा निगरानी करता है। मैं लुइस से बराबर धीरे चलने को कह...