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Showing posts from May, 2016

जय जगदीश हरे

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कल एक मित्र ने फेस बुक पर आनंद मठ का वह बड़ा ही सुमधुर गीत - जय जगदीश हरे - पोस्ट किया। एक अन्य मित्र ने सवाल उठा दिया कि गीता दत्त और हेमंत कुमार का गाया यह गीत आखिर कह क्या रहा है। सच ही तो है जिसने कवि जयदेव की कोमल कान्त पदावली नहीं पढ़ी है, वो तो बेचारे सिर्फ़ "जय जगदीश हरे" की टेक ही पकड़ पाते हैं। ये सवाल एक समय मेरे मन में भी उठा था। उन दिनों बनारस में मेरी नानी की भजन मंडली हर शनिवार को जमा होती थी और भजन-कीर्तन से मन बहलाती थी। मैं बराबर नए गीतों की खोज में रहती थी। उन दिनों रफ़ी साहब का गाया - पाँव पडूँ तोरे श्याम ब्रज में लौट चलो, सुलक्षणा पंडित का गाया - कैसे कान्हा का राधा भरोसा करे और शारदा सिन्हा का गाया - जगदम्बा घर में दियरा बार अइनी हो सीखा और भजन मंडली में गाया। लेकिन परिचित धुनों वाले गीत ज़्यादा जमते थे । सोचा जय जगदीश हरे गाकर देखूँ। लेकिन शब्द पकड़ायी में नहीं आ रहे थे। कहीं से सुन लिया कि यह जयदेव के गीत गोविन्द में मिलेगा। बस, मिल गया कोड़ा! अब क्या चाहिए था? जीन, लगाम और घोड़ा। गीत गोविन्द की तलाश शुरू हो गयी। पहले तो अपने घर की पुस्तकों में ही ढूँढा। न

नेहरू जी नहीं रहे

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बात उन दिनों की है जब गोवा पुर्तगाली शासन से नया-नया मुक्त हुआ था, हालाँकि हवा तब भी साढ़े चार सौ वर्षों की दासता से भारी महसूस होती थी। लोग तब भी देश के अन्य हिस्सों को इंडिया कहते थे, बाज़ारों में विदेशीसामान भरा पड़ा था और समुद्र तट पर १२-१४ वर्ष के बच्चे भी बियर या वाइन का लुत्फ़ लेते देखे जा सकते थे। आकाशवाणी पर भी एमिसोरा डि गोवा का असर बाक़ी था। दोपहर में लंच के बाद लगभग दो घंटे सिएस्टा केलिए नियत थे। केंद्र निदेशक का कमरा बहुत बड़ा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ था। कमरे की एक पूरी दीवार शीशे की थी, जहाँ से बगीचे का कोना नज़र आता था। कमरे में एक तरफ आरामदेह सोफा- कम- बेड था, जहाँपुर्तगाली केंद्र निदेशक सिएस्टा का आनंद लेते थे। नए केंद्र निदेशक मेजर अमीन फौजी व्यक्ति थे, जिन्हें आराम के नाम से चिढ़ थी। वैसे भी वह नेहरूजी के 'आराम हराम है' के नारे वाला दौर था। मेरे पिताजी, कृष्ण चन्द्र शर्मा'भिक्खु' सहायक केंद्र निदेशक थे।दोनों अधिकारियों की पूरी कोशिश रहती कि कम से कम आकाशवाणी से सिएस्टा का चलन ख़त्म हो जाये। लेकिन पुरानी आदत जाते-जाते ही जाती है। गोवा में तब आक

हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुश्बू

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आकाशवाणी की नौकरी से फुर्सत पाकर मेरे दो पसंदीदा काम हैं - संगीत सुनना और बाग़बानी करना। जब बगीचे में मेरे लगाये किसी पौधे में नयी कोंपल फूटती है या फिर कोई भूला-बिसरा गीत सुनने को मिल जाता है तो बड़े शुद्ध निर्मल आनन्द की अनुभूति होती है। पूरा दिन भर ख़ुशी-ख़ुशी बीतता है। पिछले अक्टूबर में मैंने एक नारंगी का पौधा खरीदा था। बड़ा सा खूबसूरत गमला और उसमें ढेरों हरी पत्तियों के बीच से झाँकती छोटी-छोटी नारंगियाँ इतनी प्यारी लग रही थीं कि क्या बताऊँ ! जेब तो ख़ाली कर गया लेकिन मन को ख़ुशी से भर गया। सर्दी का मौसम आया तो पत्तियाँ पीली पड़ने लगीं। कुछ ही दिनों में सारी पत्तियाँ गिर गयीं और टहनियों पर गाँठ सी नारंगियाँ भर रह गयीं। दो महीने के खाद-पानी के बावजूद जब पौधे पर एक भी पत्ती के दर्शन नहीं हुए तो आख़िरकार दुखी मन से मैंने नारंगियाँ तोड़कर मीठी चटनी बना डाली।  कुछ दिन और बीते। दूसरे-तीसरे दिन पानी दे देती पर निराश मन से सोचने लगी थी कि अब इस गमले में क्या लगाऊँगी। एक दिन अचानक सूनी टहनी पर नयी पत्ती की झलक देखी तो आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। लेकिन अब यकीन हो चला है कि मेरे सब्र का खट्ट

लो डाल डाल फूले पलाश

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-- शुभ्रा शर्मा सौभाग्य था मेरा कि बचपन में जिस स्कूल में पढ़ी, वहाँ बड़ा "शांति निकेतनी" वातावरण था। चार-चार कक्षाओं के बीच खुला आँगन और उनमें तरह तरह के पेड़-पौधे। इस तरह हमारा बचपन प्रकृति के साथ बीता। आम, इमली, जामुन, अमरुद, और नीम ही नहीं हम टेसू, कदम्ब, मौलसिरी और अशोक के भी फूलने-फलने का समय जानते थे। कुंद की झाड़ी  म्यूज़िक क्लास के सामने कुंद की ऊँँची झाड़ियाँ थीं। सुबह जल्दी पहुँचकर गिरे हुए फूल बीनने की होड़ रहती हमारे बीच। उन फूलों से हम बिना सुई-डोरे के मालायें गूँथते और अपनी चोटियाँ सजाते थे। जिस लड़की के बालों में सबसे घना गजरा नज़र आता, उससे सब पूछतीं - क्या आठ बजे ही स्कूल आ गयी थी? इसी तरह अलग-अलग मौसम में माधवी, मालती और मौलसिरी के फूल हमारे श्रृंगार बनते। करौंदा  जुलाई में स्कूल खुलता तब पूरी दीवार के साथ लगी करौंदे की झाड़ियाँ फल-फूल रही होतीं। लाल-लाल करौंदे देख मुँह में पानी आये बिना नहीं रहता। माली और दाइयों की आँख बचाकर करौंदों से जेब भरकर लाने वाली लड़की हीरोइन बन जाती। तब तक कदम्ब फूलने लगते। न जाने क्यों मुझे बचपन से कदम्ब के फूल बड़े

दस बेटे बनाम एक पेड़

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-- शुभ्रा शर्मा आजकल पेड़-पौधों का प्रेम मेरे सर पर चढ़ कर बोल रहा है। जो कुछ पढ़ती हूँ, फोकस पेड़-पौधों पर ही रहता है। प्राचीन अभिलेखों के बारे में पढ़ रही थी, तभी यह श्लोक नज़र आया - दशकूपसमा वापी, दशवापीसमो ह्रदः। दशह्रदसमो पुत्रो, दशपुत्रसमो द्रुमः।।   दस कुँए के बराबर होती है एक बावड़ी, दस बावड़ी के बराबर एक सरोवर, दस सरोवर के समान एक पुत्र और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष का महत्त्व होता है। Koop आज के समय में पानी का महत्त्व जगजाहिर है। भविष्य के बारे में सोचने वाले बहुत दिनों से आगाह कर रहे हैं कि पानी सँभाल कर खर्च करें। पृथ्वी पर खारे पानी के सागर-महासागर भरे हुए हैं, मगर प्राणियों को ज़िंदा रहने के लिये जो पानी दरकार है उसकी मात्रा तेज़ी से घटती जा रही है। पानी की कमी दुनिया का नक़्शा किस हद तक बदल सकती है, इसका कुछ आभास होता है 1995 में बनी फिल्म WATERWORLD से। इस फिल्म में दिखाया गया था कि ग्लोबल वॉर्मिंग के परिणामस्वरूप ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ़ पिघल गयी है और पूरा संसार जलमग्न हो गया है। लोग समुद्र में जाल सा बाँध कर उस पर किसी तरह जी रहे हैं। मिटटी-पानी के दर्शन दु

कवि - समय

भाई इन कवि लोगों का कोई जवाब नहीं! कहाँ-कहाँ पहुँच जाते हैं ! क्या-क्या देख लेते हैं ! और काफ़ी कुछ तो ऐसा देख लेते हैं जो किसी और ने सपने में देखा-सुना या सोचा भी न हो। अजन्मे बच्चों से बात कर लेते हैं। पर्वत, जंगल, नदी, फूल, भँवरे से मिताई कर लेते हैं। और तो और, आसमान के किसी कोने से बादल ज़रा सा झाँका नहीं कि उसे झट कामों की पूरी फ़ेहरिस्त थमा देते हैं - "सुन भाई, ज़रा लपक कर नत्थू की दूकान से मिठाई ले आ। और रास्ते में धोबी के यहाँ से ज़रा प्रेस के कपड़े भी उठा लेना। और सुन अम्मा कल से नीम्बू लाने को कह रही हैं। मैं तो जा नहीं पाया। ज़रा पूछ ले यार, अगर ज़रुरत हो तो उनसे पैसे लेकर उन्हें चार नीम्बू भी ला देना।" सुना है ऐसे ही कामों की फ़ेहरिस्त गिनाते-गिनाते कालिदास का खण्डकाव्य तैयार हो गया और वे मेघदूत की रचना कर अमर हो गये। पर उसके बाद बादल भी सयाने हो गये। उन्होंने दूसरों की बला अपने सर लादने से साफ़ इंकार कर दिया - "ये क्या बात हुई - बेगार में खटें हम और मलाई खाये काम बताने वाला। ऐसी कम तैसी इन नालायकों की ! हम क्या इनके बाप के नौकर लगे हैं ? ये ससुर हमसे काम करायेंग