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Showing posts from April, 2016

पचास साल बाद - २

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पचास साल पहले मिरामार बीच पर खोये जूते को अंतिम विदा देकर मैं लुइस की टैक्सी में बैठ जाती हूँ। मन में अब भी पापा की सीख गूँज रही है, हालाँकि आज उनकी बात पर विश्वास करना कठिन है कि मेरा जूता किसी ज़रूरतमंद लड़की को ही मिला होगा।  लुइस को समझाती हूँ कि मिरामार से पणजी की तरफ जाती सड़क पर कहीं वह होटल था, जो पचास साल पहले, गर्मी की छुट्टी भर हमारा घर था। उसके बगल से एक सड़क सब्ज़ी मंडी जाती थी और उसके आगे मिलिट्री हॉस्पिटल था। लुइस कहता है - ओह! कम्पाल एरिया ! इस नाम से मेरी यादों में कोई घंटी नहीं बजती। लेकिन मैं उस होटल को ढूँढ निकालने के लिये बहुत उत्सुक हूँ। वहाँ मेरे अम्मा-पापा हैं, अलसेशियन गोआ है, क्लेमेंटीन आंटी है। हमारे कमरे की वो बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ हैं, जिनकी विंडो सिल पर बैठकर अगुआद का क़िला और मांडोवी में आती-जाती नावें देखी जा सकती हैं। सर्विस लेन के आगे वो पेड़ है, जिसकी टहनियाँ कुछ इस तरह निकली हैं कि उनके संधिस्थल पर बड़े आराम से टेक लगाकर बैठा जा सकता है। जहाँ बैठकर मैं कालिदास ग्रंथावली पढ़ती हूँ और गोआ पेड़ के नीचे बैठा निगरानी करता है। मैं लुइस से बराबर धीरे चलने को कह रही

पचास साल बाद

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कम लोगों के जीवन में ऐसे अवसर आते होंगे कि वे पचास साल पहले की भूली-बिसरी यादों पर जमी धूल झाड़कर चमकीले रंगों वाली तस्वीर को फिर से देख सकें। ख़ुशनसीब हूँ कि मुझे ऐसा मौक़ा मिला कि साठ साला आँखों से दस साल वाली शुभ्रा की जानी-पहचानी जगहों को देख सकी, उसकी बेफ़िक्री और मस्ती को महसूस कर सकी। इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं- बेटा श्रेयस, बहू अपर्णा और बेटी-सी श्रेया। एक ने ज़िद करके टिकट बुक करा दिये। दूसरी ने समझाया - कभी तो अपने बारे में भी कुछ सोच लो, कर लो। और तीसरी ने मुँह लटका लिया - आप नहीं जाओगी तो मुझे बहोत-बहोत दुख होगा। सिर्फ अपने मन की बात होती तो शायद मार भी लेती लेकिन इन तीन तिलंगों का मन कैसे मारती ? आख़िरकार जाना ही पड़ा। ये बड़ा सुखद संयोग है कि मेरी दोनों गोआ यात्राओं में आकाशवाणी का भरपूर योगदान रहा। पहली बार जब पापा का तबादला हुआ और दूसरी बार जब निपट अकेली महिला के होटल में ठहरने के संकोच से मैंने आकाशवाणी के अतिथि-गृह में रहने का फैसला किया। 1964 में मेरे पापा ( श्री कृष्ण चन्द्र शर्मा 'भिक्खु' ) की पोस्टिंग लखनऊ से पणजी हुई। अम्मा (डॉ शकुन्तला शर्मा) दिल्ली

उपमा कालिदासस्य

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बचपन से किताबें पढ़ने की ऐसी चाट पड़ गयी थी कि जो कुछ हाथ लग जाये - चाट जाती थी। सातवीं क्लास में थी जब पापा की पोस्टिंग गोवा हुई। गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्त हुए कुछ ही दिन हुए थे। वातावरण कोंकणी या भारतीय कम, पुर्तगाली अधिक था। खान-पान हो या रहन-सहन सभी पर विदेशी छाप नज़र आती थी। दस-ग्यारह वर्ष के बच्चों के हाथ में बियर की बोतल दिख जाना, कोई अजूबा नहीं था। ऐसे में मुझे पढ़ने के लिए बच्चों की वह पत्र-पत्रिकायें कहाँ से मिलतीं, जिनकी मुझे आदत थी। बनारस और लखनऊ में पराग और चंदामामा नियमित रूप से घर आती थीं। और जब कभी रेल का सफर करना होता, तब बड़े लोग मेरे सवालों की झड़ी से बचने के लिये ए. एच. व्हीलर के स्टॉल से मुझे मनमोहन, राजा भैया या बालक में से कुुछ भी खरीद देने को तैयार हो जाते थे। पणजी में रेडियो के अधिकारियों के लिए सरकारी आवास नहीं थे। स्थानीय लोग अपने घरों में रहते थे और बाहर से आने वालों को होटल में शरण लेनी पड़ती थी। सरकारी कॉलोनी होती तो साथ खेलने के लिये शायद हम-उम्र बच्चे मिल जाते लेकिन होटल में ऐसी कोई व्यवस्था संभव नहीं थी। होटल मालिक के पास एक बेहद खूँख्वार-सा लगता एलसेश

भगवती जागरण

दिल्ली में ब्याह-बारात, धरना-मोर्चा और क्रिकेट मैच की तरह देवी दुर्गा का रतजगा भी कुछ अतिरिक्त शान-शौकत, टीम-टाम और दिखावा लिए होता है। पहली बात तो यही है कि उसे रतजगा न कहकर माता की चौकी या भगवती जागरण कहा जाता है। दूसरे, आधे शहर में उसकी घोषणा करते हुए जो बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग लगाए जाते हैं, उनमें शेर पर सवार होकर दैत्यों का संहार करने निकली माता तो कहीं कोने-अतरे में फिट कर दी जाती हैं। होर्डिंग पर सजे होते हैं उनके नाम की चुनरी माथे पर बाँधे बड़े-बड़े गायक, वादक और स्थानीय विधायक जी के चेहरे। उनसे कुछ दूरी पर ऊपर से नीचे जाते गोल-गोल बुद्बुदों में निगम पार्षद और उनके भाई-भतीजों के चित्र होते हैं। आप पढ़ते जाते हैं कि कैसे उस परिवार के ये सारे सदस्य कभी न कभी, किसी न किसी, महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित रह चुके हैं। पूर्व विधायक, पूर्व पार्षद, आदि से गुज़रते हुए अगर आप सदस्य, मोहल्ला रक्षक समिति तक पहुँच जायें, तो भी आश्चर्य न कीजियेगा। आख़िर मोहल्ले की सफ़ाई और सुरक्षा का ध्यानं रखना भी तो सराहनीय कार्य है, कि नहीं? जब चौकी सज जाती है या माँ का दरबार लग जाता है, तब घरों में बंद ल

My best friend or Bestie?

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कल मेरी सबसे पुरानी सहेली वीणा का जन्म दिन था। मैंने सोचा सुबह-सवेरे दस कामों के बीच उसे मुबारकबाद देने से अच्छा रहेगा कि ऐसे समय फ़ोन करूँ जब कुछ देर फ़ुर्सत से बतिया सकूँ। इसलिये शाम की चाय निबटाकर और रात के खाने की धूम-धाम शुरू होने से पहले, आराम से पंखा चलाकर, सोफ़े पर पसरकर उसे फ़ोन किया। फ़ोन उठाते ही बोली - याद आ गया तुम्हें? मैंने कहा - याद तो सवेरे से था, लेकिन इत्मीनान से बात करना चाहती थी। उसकी इस बात पर मुझे बहुत मज़ा आया। कोई तो है जो मुझे इतने कम शब्दों में ताना दे सकता है। और साथ ही कोई ऐसा भी है जो इतने कम शब्दों में मेरी सफ़ाई सुन और समझ सकता है। यह आज के इंस्टेंट रिश्तों में संभव नहीं हो सकता। आज मिले, कल साथ घूमे, परसों "बेस्टी" बन गये। एक महीने बाद एक-दूसरे के बारे में पूछिये तो हज़ार श्लोकी महाभारत के बराबर शिकायतें मिलेंगी। हो सकता है कि कुछ पशु-पक्षियों के नाम भी सुनने को मिलें, जैसे कुत्ता, लोमड़ी, भेड़िया, गिद्ध, आदि। अगर मासिक परीक्षा में पास हो गये तो साल-दो साल चल जाते हैं ऐसे रिश्ते। लेकिन मेरे और वीणा जैसे रिश्ते की आस रखते हों तो बर्दाश्त करना स

दुर्गा दुर्गतिनाशिनी

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चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का हमारे देश के कैलेंडर में कुछ विशेष महत्त्व ज़रूर है, वरना एक ही तिथि को देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से क्यों और कैसे मनाया जाता? उस दिन से नव संवत्सर आरम्भ होता है। वासन्ती नवरात्र आरम्भ होता है। इसके अलावा कहीं चेटी चंड, कहीं गुडि पाड़वा तो कहीं उगाडि अथवा युगादि मनाया जाता है। चलिए यह विमर्श फिर कभी करेंगे। आज देवी दुर्गा के नौ रूपों की आराधना के नौ दिनों यानी नवरात्रों की बात करते हैं। शारदीय नवरात्र और वासन्ती नवरात्र एक दूसरे से ठीक छह महीने की दूरी पर आते हैं। एक सर्दियों से ठीक पहले तो दूसरा गर्मियों से ठीक पहले। आज के जलवायु परिवर्तन के दौर की बात छोड़ दें तो अब से पचास या चालीस वर्ष पूर्व तक नवरात्र में मौसम बदलने का साफ़ पता चलने लगता था। स्पष्ट है कि नवरात्र, बदलते मौसम का ऐलान करते हुए आते थे। इस के बाद ही जाड़ा और गर्मी अपने पूरे शबाब पर आते थे। पुराने दिनों में, साधनों के अभाव में प्रचण्ड जाड़ा या गर्मी दोनों ही प्राणलेवा हो सकते थे। ऐसे में माँ की याद आना स्वाभाविक ही है। कहा भी तो है - आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवे

चैती

होली के बीतते ही आता है चैत का महीना। बौराये आमों पर छके हुए भौंरों की गुंजार का महीना। खेत-खलिहान में जागने का महीना और जागती आँखों में सुनहरी फसलों के सपने सजाने का महीना। चैती की तान छेड़ने का महीना - हिया जरत रहत दिन रैन, हो रामा, जरत रहत दिन रैन  अम्बुआ की डाली पे कोयल बोले तनिक न आवत चैन हो रामा, जरत रहत दिन रैन।   बँसवारी में मधुर सुर बाजे बिरही पपिहरा बोलन लागे  मधुर-मधुर मधु बैन हो रामा।  आस अधूरी प्यासी उमरिया छाये अँधेरा सूनी डगरिया  डरत जिया बेचैन हो रामा।  फ़िल्मी गीत होने के बावजूद इसमें लोकगीत की मिठास है। माटी की सुगंध है। शायद इसलिए कि इस गीत की रचना प्रक्रिया से जुड़े सभी लोग कहीं न कहीं बनारस-ग़ाज़ीपुर से जुड़े थे। उपन्यास के लेखक प्रेमचंद जी बनारस के पास लमही ग्राम के रहने वाले थे, जो अब हिन्दी के लेखक-पत्रकारों के लिए तीर्थ बन चुका है। फिल्म के निर्माता-निर्देशक त्रिलोक जेटली और गीतकार अंजान ख़ास बनारस के रहने वाले थे। और शायद कम  लोग जानते हों कि इस फिल्म के संगीतकार पंडित रविशंकर का बचपन बनारस के पास ग़ाज़ीपुर में बीता था। ग़ाज़ीपुर ने फिल्मी दुनिया को एक और ज़बरदस्

Holi

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इस बार होली पर दोस्तों की महफ़िल में मैंने एक सवाल रखा - मेरे लिए होली का मतलब है गुलाल, गीत और गुझिया। आपके लिये ? बहुत सारे जवाब आये। सबने अपने-अपने तरीके से होली मनाने का ब्यौरा दिया। मगर देखा कि उनमें से ज़्यादातर चित्र बचपन के थे और गीत सभी के अभिन्न अंग थे। अपने बचपन से शुरू करूँ तो होली से जुड़ा जो पहला गीत स्मृति में उभरता है, वह था - जमुना तट श्याम खेलैं होरी, जमुना तट। एक ओर खेलें कुँवर कन्हैया, एक ओर राधा गोरी रे, जमुना तट। होली की एक टोली के चले जाने पर रंग-गुलाल से भीगे लोग घास पर पसरकर गुझिया-ठंडाई का आनंद लेते और हारमोनियम-तबले पर चलते रहते गीत - फगवा ब्रिज देखन को चलो री। फगवे में मिलेंगे कुँवर कान्ह, बाट चलत बोले कगवा। और - आज बिरज में होरी रे रसिया, होरी नहीं बरजोरी रे रसिया। या फिर - कान्हा बरसाने में आय जइयो बुलाय गयीं राधा प्यारी बुलाय गयीं राधा प्यारी रे समझाय गयीं राधा प्यारी। लेकिन यह तो धुलड्डी के दिन की बात है। होली की तैयारी तो उससे बहुत दिन पहले से शुरू हो जाती थी। महिलाओं के बीच अनुपम "बहन-चारा" लागू हो जाता था। जो गुझिया की विशेषज्ञ होतीं, वे

साँझ

साँझ ---डॉ शकुन्तला शर्मा साँझ ऐसी मुरझायी सी ढर आये रे जैसे गेंदा की बगिया ठिठर जाये रे। बादल के छज्जे पे लहँगे की लहरन पेड़ों की गोट जड़ी जोड़-जोड़ कतरन अधर में लटकती सी पकड़ क्षितिज की धरन धरती पर दलदल है कहाँ धरे थके चरन भूखे खेतों का मुखड़ा उभर आये तो दबी कोहरे सी पीड़ा पसर जाये रे। साँझ ऐसी ....... सागर की सीमा पे ललछौंही गहरन दुखियारी आँखों में काजल की धुँधलन मेघों की हलचल में किरणों की उलझन मेले में जैसे भटक जाये दुलहन घिरते अंधियारे में ऐसी घबराये रे, बंद कमरे में ज्यों पाँखी डर जाये रे। साँझ ऐसी ......... अनचाहे बालक से गाँव के घरौंदे नदिया में पाँव कहीं डाँव-डाँव डोलते पपड़ी भरे होठों सा छपरी मुख खोलते दिया बरे लायेगी मैया कुछ खोजके मैले नभ से सितारे छिटक आये रे, जैसे आँचल से मकई बिथर जाये रे। साँझ ऐसी ......... संध्या सुन्दरी  ----निराला दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।