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Showing posts from March, 2016

kahin door jab din dhal jaye

उदास सी साँझ घिर आई थी। दूर क्षितिज पर डूबते सूरज के ललछौंहे निशान धुँधले पड़ते जा रहे थे। बरामदे में खड़ा आनंद गा रहा था -- कहीं दूर जब दिन ढल जाये  साँझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये  मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाये।  तभी बाबू मोशाय भास्कर बैनर्जी चुपके से आकर उसके पीछे खड़े हो जाते हैं।   आनंद पूछता है - ऐ बाबू मोशाय! चोरी-चोरी मेरा गाना सुन रहे थे? कैसा लगा? भास्कर जवाब देते हैं - अच्छा था।  लेकिन कुछ उदास लगा।  आनंद कहता है - उदासी क्या सुन्दर नहीं होती ! हृषिकेश मुखर्जी और गुलज़ार की कल्पनाशीलता और क्राफ्ट की बदौलत यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में उदास संध्या का ऐसा बेजोड़ चित्र है, जिससे बेहतर न अब तक हुआ, न हो सकता है। "न भूतो न भविष्यति।"  कुछ और भी चित्र उभरते हैं।  जैसे वहीदा रहमान वाली फागुन फिल्म का - संध्या जो आये मन उड़ जाये  जाने रे कहाँ, करूँ  क्या उपाय ? विरहिणी नायिका का निपट एकाकीपन, उसके घर और जीवन का सूनापन जिस तरह उभर कर आता है और देखने वाले को व्यथित कर देता है, उसका श्रेय न तो गीत-संगीत को दिया जा सकता है और न  न

लट उलझी सुलझा जा रे मोहन

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आज फेसबुक पर एक मित्र ने अपनी बगिया में खिले मोगरे का चित्र पोस्ट किया था।  उनकी श्रीमती जी उसी मोगरा के फूलों का खूब सघन सा गजरा भी बालों में बाँधे हुए थीं।  देखते ही मुझे एक बड़ा पुराना गीत याद आ गया। मैंने उसी गीत की पहली पंक्ति दोस्त की दीवार पर चिपका दी। लट उलझी सुलझा जा रे मोहन, कर मोरे मेंहदी लगी। माथे की बिंदिया अबरू पे आ गयी अपने हाथ लगा जा रे मोहन, कर मोरे मेंहदी लगी। गीत उन्हें पसंद आया। पूछने लगे - किसका गीत है, किसने गाया है? मैंने कहा - भाई, मेरी नानी यह गीत गाती थीं।  मूल गीत तो मैंने कभी सुना ही नहीं। कहने लगे - मैंने तो सोचा था कि आपके पास से कोई बहुत पुराना, अनसुना गीत सुनने को मिलेगा। मैंने चैलेंज स्वीकार किया और इंटरनेट पर रिसर्च में पिल पड़ी। दो गीत दिखाई दिये। एक में कोई महात्मा जी मोहन की भक्ति में तल्लीन थे और दूसरे में मलका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ मोहन से नहीं, अपने बालम से कह रही थीं उलझी लट सुलझाने को। दोनों गीतों की धुन वह नहीं थी जो मेरे कानों में गूँज रही थी। लिहाज़ा मैंने रिसर्च को थोड़ा और विस्तार दिया।  इस बार कुछ अधिक गुरु-गम्भीर चेहरे सामने आये।

Ham donon

आज कल  देश में जिस तरह की बहस छिड़ी हुई है, उसे देख-सुनकर मुझे नज़ीर मामू बहुत याद आते हैं। नज़ीर मामू यानी हरदिलअज़ीज़ शायर नज़ीर बनारसी।  मैंने पहली बार उन्हें बनारस कैंट रेलवे स्टेशन पर देखा था। मेरी अम्मा डॉ शकुन्तला शर्मा अपर इंडिया एक्सप्रेस से दिल्ली जा रही थीं और हम सब उन्हें छोड़ने स्टेशन गए थे।  छोटे से क़द के नज़ीर साहब लकदक सफ़ेद कुर्ते पायजामे में अच्छे तो लग रहे थे लेकिन मैं और मेरे ममेरे-फुफेरे भाई उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ हमें हर बात पर बेवजह, बेतहाशा हँसी आती थी।  सो नज़ीर साहब पर भी हँसना शुरू हो गये।  लेकिन अम्मा पहले उनसे मिल चुकी थीं। उनके अदबो-इल्म से वाक़िफ़ थीं।  उन्होंने हमारी ही-ही ठी-ठी पर आँखें तरेरीं और मुझे पास बुलाकर परिचय कराया।  मैंने बमुश्किल हँसी पर क़ाबू पाते हुए सलाम किया। उन्होंने जिस तरह सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया, मुझे बहुत अच्छा लगा। दिल्ली तक की उस यात्रा में उन्होंने अम्मा को बहन मान लिया और तभी से वे हमारे मामू हो गए। कई साल हम उनसे ईदी वसूलते रहे। बाद में वे मेरे नानाजी के अच्छे दोस्त बन गये थे। जब कभी कुछ नया लिखते आकर सुनाते। हम भी फरमाइशें कर-कर

मन्वन्तर क्यों ?

आप सोच रहे होंगे कि शुभ्रा शर्मा के ब्लॉग का नाम "मन्वन्तर" क्यों है। क़ायदे से तो शुभ्रायण  या शुभ्रा कहिन टाइप कोई नाम होना चाहिए था।  तो दोस्तो! सच्चाई यही है कि 'शुभ्रा' यह नाम मुझे स्कूल जाने की उम्र में मिला। सन् बयालीस के दिनों में लाठी-गोली खाने वाले माँ-बाप ने राष्ट्र भक्ति की झोंक में बंकिम बाबू के वंदे मातरं से शब्द उधार लेकर मुझे शुभ्रा बना दिया।  हो सकता है इसके पीछे कुछ हाथ मेरे गोरे रंग का भी रहा हो। वरना शुभ्रा के बजाय सुजला या सुफला भी तो कही जा सकती थी। जो भी हो स्कूल में मेरा नाम शुभ्रा ही लिखाया गया। और आज तक, जब भी कोई मेरे नाम को लिखने या बोलने में अटकता है तो मैं उसे वंदे मातरं का हवाला देती हूँ। सबसे रोचक घटना हुई १९८८ के आस-पास।  उन दिनों मैं दिल्ली दूरदर्शन के लिए अनुबंध पर काम करती थी। दूरदर्शन की उस समय की लोकप्रिय अनाउंसर ज्योत्स्ना को कोई उद्घोषणा रिकॉर्ड करानी थी।  उन्हें किसी शब्द को लेकर दुविधा थी, जिसे दूर कराने वे पत्रिका कार्यक्रम की प्रोड्यूसर दुर्गावती जी के कमरे में आईं। दुर्गा दीदी ने हस्बेमामूल उन्हें मेरे पास भेज दिया। हम बा

गगन से गीत फूल झरते

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गगन से गीत फूल झरते। देह नदी श्वासों की नैया तिरता स्वर का कुँवर कन्हैया साधों की ब्रजबाला चल दी शंकित पग धरती। मुस्कानों के यमुना तट पर विश्वासों के वंशी वट तर इच्छाओं के गोवर्धन को आश्वासित करते। मन सागर में हो उद्वेलन शेषशायी जीवन अनुचिंतन फैले जब जब गरल धरा पर अमृत कण ढरते। - Shakuntala Sharma

Naresh Mehta

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत नरेश मेहता के नाम से मैं बचपन से ही परिचित थी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर पढ़ाई के दौरान वे मेरे माता-पिता के सहपाठी थे। कुलपति थे डॉ राधाकृष्णन और हिंदी विभाग आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी जैसे उद्भट विद्वानों से सुसज्जित था। हजारी प्रसाद द्विवेदी तभी शांति निकेतन से काशी आये थे। एम ए फाइनल के छात्रों के विदाई समारोह में नरेश जी ने मौलिक कवितायें लिखी थीं। मेरी माँ, शकुंतला शर्मा के लिए उन्होंने बिहारी का दोहा एक सुन्दर से कार्ड पर लिखकर दिया था- अमिय हलाहल मद भरे स्वेत स्याम रतनार। जियत मरत झुकि-झुकि परत जेहि चितवत एक बार। पिताजी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार कृष्ण चन्द्र शर्मा 'भिक्खु' की ओर से लिखी कविता माँ को संबोधित थी - उस आम्र वृक्ष की छाया में हम प्रिये मिले थे प्रथम बार। हम दो तीर्थों के दो प्रतीक तुम काशी की, मैं हरिद्वार।|

"आंगना में कुइयां राजा डूबके मरूंगी"

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-  शुभ्रा शर्मा चौराहा पर एक लेख पढ़ा 'अंगना में कुइयां' तो बचपन में सुना एक लोकगीत याद आ गया - "आंगना में कुइयां राजा डूबके मरूंगी"| लेख में पुराने लुप्त होते जलस्रोतों के पुनरुद्धार की बात की गयी है. मैं सोचने लगी कि कोई उन तमाम लोकगीतों के उद्धार की बात क्यों नहीं करता, जो उन जलस्रोतों के साथ ही लुप्त होते जा रहे हैं| उदाहरण के तौर पर पंजाब में गाया जाने वाला वह गीत जिसमे कुँए पर पानी भरने जा रही नायिका को रोककर सिपाही पूछता है - "ये जो तेरे पैर में कांटा चुभ गया है, इसे कौन निकालेगा, कौन इसकी पीर सहेगा?" सड़के सड़के जानिये मुटियारे नी कंडा चुबा तेरे पैर बांकिये नारे नी, ओये नी अडिये कौन कढे तेरा कांडडा मुटियारे नी कौन सहे तेरी पीड बांकिये नारे नी, ओये नी अडिये सिपाही उससे पानी पिलाने को कहता है तो वह तमक कर जवाब देती है - मैं तुम्हारी बांदी नहीं हूँ| घड़ा पजे कुमियारा दा सिपैया वे लज्ज पई टोटे चार कि मैं तेरी मैरम ना. देर से घर पहुँचनेपर सास नाराज़ होती है, बरसों पहले परदेस गया उसका बेटा जो लौट आया है| मिलने पर पता लगता है कि कुँए पर